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इसलिए नहीं कि हम साधु-संस्था को किसी तेज़ तेज़ाब में डालना चाहते हैं, वरन् इसलिए कि हम इससे अधिक उजास और प्रेरणा चाहते हैं ? हम चाहते हैं
हमारा जो सांस्कृतिक बल क्षीण हुआ जा रहा है
उसे
हमारी यह संस्था संभाले, उसे बलवत्ता - गुणवत्ता प्रदान करे, उसे स्थायी आधार प्रदान करे,
तथा
आनेवाली पीढ़ी को एक प्रकाश स्तम्भ की भाँति खतरों से बचाये, उसका दिशा- दर्शन करे ।
संसार से निराश व्यक्ति,
तनाव में तड़पता व्यक्ति,
अशान्ति, क्लेश, क़त्ल, संत्रास, युद्ध, कलह, चोरी-तस्करी में छटपटाता आदमी
इन साधुओं की शरण में आज लगातार पहुँच रहा है, किन्तु क्या
वह
भगवानों, योगियों, बाबाओं, तान्त्रिकों, मान्त्रिकों और ज्योतिषियों का बाना पहने इन साधुओं से निराश नहीं लौट रहा है ?
क्या अन्धविश्वासों के दुश्चक्र, या फेरे से वह कभी बाहर हुआ आज पुनः साधु-मछेरों के उसी जाल में नहीं फँस रहा है ?
क्या किसी पुस्तक को प्रकाशित करना - कराना, या कोई मन्दिर बनवा देना, या कोई दान-धरम कर देना ही वस्तुत: धर्म है ?
या किसी काम को सम्यक्त्व की खरी- असली कसौटी पर कस कर कोई क़दम उठाना धर्म है ?
क्या आज जो साधु किसी आन्दोलन के प्रतीक बन गये हैं, उनका ऐसा होना ठीक है ?
क्या उन्हें आन्दोलनातीत, अथवा संप्रदायातीत होने की आवश्यकता नहीं है ? क्या साधुओं का मुख्य कार्य आत्मोत्थान नहीं है ?
क्या इस आत्मोन्नयन के लिए ही सर्वत्र सदैव उन्हें सब कुछ नहीं करना चाहिये ? क्या सामाजिक, अथवा सांस्कृतिक समारोहों में,
या ऐसे ही किन्हीं प्रपंचों में डूबा - सना कोई साधु समाज को कोई अमृत-कलश दे सकता है ?
क्या धर्म विज्ञान का दुश्मन शब्द है ?
या
विज्ञान धर्म का शत्रु शब्द है ?
क्या धर्म के किञ्चित् वैज्ञानिक होने की आवश्यकता से हम मुँह मोड़ सकते हैं,
और क्या विज्ञान को तनिक धार्मिक होने की ज़रूरत नहीं है ?
क्या ये दोनों एक-दूसरे से परिणीत हो कर एक-दूसरे को समृद्ध नहीं कर सकते ?
क्या जैनदर्शन के भेदविज्ञान का कोई वैज्ञानिक आधार है ?
क्या भेदविज्ञानी वह साधु हो सकता है जो सांसारिकताओं से सरोकार रख रहा है, और
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आ.वि. सा. अंक
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