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संपादकीय
साधुओं को नमस्कार
साधु क्या है ? साधु कौन है ? जैनधर्म में लोक के सर्व साधुओं को नमस्कार किया गया है, क्या 'लोक' संबोधन के अन्तर्गत सभी साधु पूज्य हैं ? यदि नहीं, तो क्यों? यदि हाँ, तो क्यों? कभी-कभार व्यंग्य-उपहास में 'साधु' को 'स्वादु' भी कहा जाता है, ऐसा क्यों है ? क्या साधु कोई स्वाद के लिए होता है, और क्या स्वाद एक ही क़िस्म का है ? क्या कीर्ति में कोई स्वाद है ? साधु-संस्था क्या इससे उदासीन चलती है, चल सकती है ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि 'ऊपर से कुछ, भीतर से कुछ' इस संस्था के साथ भी है ? जिसमें इसे लीन-लिप्त होना चाहिये उससे अलिप्त कहीं यह संस्था किसी अन्य दिशा में यात्रा तो नहीं कर रही है ? आखिर साधु के कर्त्तव्य क्या हैं, क्या समाज के प्रति उसके कोई दायित्व हैं ? वह त्याग, तितिक्षा, उत्सर्ग, करुणा, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य की जीवन्त प्रतीक संस्था है; सोचें हम कि क्या आज वह इन सबका सच्चा-सही प्रतिनिधित्व कर रही है ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम लाचारी में साधु को अपना आराध्य माने हुए हैं, कहीं ऐसा तो नहीं है कि साधुओं में से अनेक किसी विवशता में दीक्षित हुए हैं और अब गले-पडे दायित्व को ढो रहे हैं? क्या वेश से कोई साधु हो सकता है ? क्या मात्र नग्नता साधता की निशानी है? क्या कोई विशिष्ट वेश-भूषा, या विशिष्ट कोई पहचान, या व्रत-उपवास, या कोई खास स्थान साधुत्व का संकेत है ? क्या अंतरंग की कोई कसौटी हमारे पास है ? क्या भीतर की खिड़कियाँ खोल किसी व्यक्ति को साधु या असाधु कहने का कोई उपाय हमारे पास है, अथवा हम निपट निरुपाय हैं ? क्या ऐसी कोई कसौटी हमारे पास है, जो साधुत्व को कस सके ? क्या इस या इन कसौटियों को प्रत्येक सामाजिक जानता है ? क्या ये कसौटियाँ व्यापक रूप से प्रचारित हैं ? क्या इन पर बदलते हुए सांस्कृतिक सामाजिक, और नैतिक-धार्मिक सन्दर्भो में विचार-पुनर्विचार होता रहा है ? क्या इन-इतने प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने-पाने की कोई ईमानदार कोशिश हमने कभी की है?
तीर्थंकर : नव. दिस. ७८
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