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निदेशक की समस्या सभी विश्वविद्यालयों में होगी। स्वयं गाइड भी कह देते हैं कि वह अमक विज्ञान के पास चले जाएँ और उन्हीं से परामर्श करता रहे। इसके अतिरिक्त कुछ प्रोफेसर तो पहले १-२ वर्ष अपने विद्यार्थियों को यों ही चुमाते रहते हैं। क्या करना है, कैसे प्रारम्भ करना है, कौन-सी पुस्तकं पढ़नी हैं, यह न बतला कर केवल विद्यार्थी को अंधेरे में ही चक्कर लगवाते रहते हैं। प्रोफेसरों की इस प्रवत्ति के कारण तो बहुत-से छात्र बीच में ही शोध-प्रबन्ः पूर करने में पाँच-छह वर्ष भी लग जाते हैं। शोध-सामग्री की प्राप्ति की समस्या
गाइड के चयन के पश्चात् शोध छात्र-छात्रा को अपनी शोध-सामग्री जुटाने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। वह मारा-मारा फिरता है। कभी किसी विद्वान के पास तो कभी किसी पुस्तकालय में। हमारे यहाँ कोई ऐसी संस्था नहीं है, जिसके पास सम्पूर्ण जैन वाङमय उपलब्ध हो। दिल्ली, आगरा, जयपुर, वाराणसी, कलकत्ता, बम्बई कहीं भी आप चले जाइये सभी स्थानों पर सामग्री का अभाव रहता है। और यदि पाण्डुलिपियों की समस्या हो तो फिर और भी मुसीबत है। मेरे स्वयं के पास प्रति वर्ष १०-२० शोध-छात्र सामग्री के लिए ही आते रहते हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि कम-से-कम जयपुर, दिल्ली, वाराणसी, कलकत्ता, बम्बई, पटना जैसे नगरों में ऐसे जैन पुस्तकालय हों जिनमें सभी प्रकार का जैन साहित्य उपलब्ध हो, चाहे फिर वह किसी भाषा एवं विषय का ही क्यों न हो। जैसे नेशनल लायब्रेरी में कोई भी पुस्तक छपते ही प्रकाशक को भेजनी पड़ती है, वैसे ही इन पुस्तकालयों में प्रकाशक एक-एक प्रति भेंट-स्वरूप अथवा मूल्य से भेज दें तो अच्छे शोध-पुस्तकालय वहाँ बन सकते हैं।
इसके अतिरिक्त अधिकांश जैन वाङमय, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश में ही उपलब्ध होता है। छात्रों को इन भाषाओं का ज्ञान नहीं होता। संस्कृत में एम. ए. करने वाले छात्र को भी प्राकृत का बोध नहीं कराया जाता इसलिए हमारे सभी ऐसे ग्रन्थों के हिन्दी एवं अंग्रेजी में अनुवाद उपलब्ध होने लगें तो शोध-छात्रों को उनका अध्ययन करने में सुविधा होगी।
जैन पत्र-पत्रिकाओं की पुरानी फाइलें प्राप्त करना और भी मुसीबत है। पहले किसी विषय पर कितना लिखा जा चुका है, अन्य विद्वानों की क्या-क्या राय हैं, इस बारे में जानना आवश्यक है। जैन सिद्धान्त भास्कर, अनेकान्त, वीरवाणी, तीर्थंकर, जैन सन्देश (शोधांक), श्रमण, जैन जर्नल जैसे कुछ पत्रों की तो फाइले इन पुस्तकालयों में होना ही चाहिये। इसी तरह दूसरी शोध पत्र-पत्रिकाओं की फाइलें होना भी आवश्यक है; क्योंकि उनमें जब कभी जैन साहित्य से सम्बन्धित लेख आया ही करते हैं।
हिन्दी में हमारा विशाल साहित्य है। किन्तु न तो उस पर कार्य हुआ है और न उसका पूरा साहित्य ही बाहर आया है; केवल बनारसीदास, दौलतराम, टोडरमल जैसे ३-४ कवियों के अतिरिक्त अभी शेष कवियों का मूल्यांकन भी ठीक से नहीं हो सका है। मुझे यह निवेदन करते हुए बड़ी प्रसन्नता है कि जयपुर में हमने श्री महावीर ग्रन्थ अकादमी द्वारा जैन हिन्दी कवियों पर २० भाग प्रकाशित किये जाने की योजना तैयार की है और उसका प्रथम भाग महाकवि ब्रह्म रायमल्ल एवं भट्ठारक त्रिभुवनकीर्ति सामने आ चुका है ।
तीर्थंकर : नव-दिस. ७८
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