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________________ समस्याओं से घिरा आज का शोध-छात्र हिन्दी में हमारा विशाल साहित्य है; किन्तु न तो उस पर अभी कोई शोध कार्य हुआ है और न ही उसका पूरा जखीरा बाहर आया है । केवल बनारसीदास, दौलतराम, टोडरमल जैसे तीन-चार कवियों के अतिरिक्त अभी शेष कवियों का समीचीन मूल्यांकन नहीं हो सका है। डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल विद्यार्थी अपने अध्ययन - काल में ऊँची-से-ऊँची परीक्षाएँ पास करने के सुनहले स्वप्न लेता रहता है। जब वह कॉलेज में प्रवेश करता है, अपने गुरुजनों को देखता है, उनकी बड़ी-बड़ी उपाधियों को पढ़ता है; प्रोफेसरों, विभागाध्यक्षों को प्राप्त सम्मान को देखता है, तब उसकी भी इच्छाएँ बढ़ती जाती हैं वह बी. ए. करता है, एम. ए. करता है और फिर पी-एच. डी. करने के लिए लालायित हो उठता है । एम. ए. चाहे उसने हिन्दी में किया हो या संस्कृत में, इतिहास में अथवा दर्शन में, वह शोध कार्य करना चाहता है और वह भी जैन वाङमय से सम्बन्धित किसी विषय पर । उसने निर्णय तो ले लिया कि वह जैन विषय पर ही अपना शोध-प्रबन्ध लिखेगा, क्योंकि उसने कितने ही व्यक्तियों से चर्चाएँ सुन रखी थीं कि जैन साहित्य से सम्बन्धित विषयों पर अभी बहुत कम शोध कार्य हुआ है, लेकिन वह इस बात से अनभिज्ञ है कि शोध कार्य क्यों कम हुआ ? बस सुन लिया कि काफी गुंजाइश है; अतः हर्ष और उमंग से उसने भी निर्णय ले लिया। लेकिन इसके पश्चात् छात्र-छात्राएँ अनेक समस्याओं से घिर जाते हैं तथा भयाक्रान्त होकर कुछ तो बीच में से छोड़ भागते हैं; किन्तु जो इस क्षेत्र में डटे रहते हैं, उनकी भी हालत बड़ी पतली हो जाती है । शोधार्थियों के समक्ष कौन-कौन-सी प्रमुख समस्याएँ आती हैं, इन्हीं पर प्रस्तुत लेख में विचार किया गया है । ८६ निदेशक चुनने की समस्या सर्वप्रथम समस्या आती है निदेशक चुनने की । विश्वविद्यालय में जो आचार्य एवं प्राध्यापक निदेशक होते हैं उनमें से अधिकांश के पास स्थान नहीं होते और यदि सौभाग्य से किसी के पास स्थान खाली मिल जाए और वह विद्यार्थी को अपने अधीन ले भी ले तो वह तो जैन साहित्य अथवा दर्शन का क, ख, ग भी नहीं जानता इसलिए वह नाम मात्र का निदेशक रहेगा, बाकी सब काम शोधार्थी को ही करना पड़ेंगे। अब बेचारा शोध छात्र फिर चक्कर में पड़ जाता है और यदि कोई शोध छात्रा हुई तो और भी मुसीबत है, क्योंकि उसका घर से बाहर निकलना भी सहज नहीं है; लेकिन चूंकि विद्यार्थी को रिसर्च करना है इसलिए वह जैन धर्म एवं दर्शन का क, ख, ग न जानने वाले आचार्य को भी अपना निदेशक चुन लेता है क्योंकि बिना निदेशक के प्रमाणपत्र के वह शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत नहीं कर सकता । Jain Education International For Personal & Private Use Only आ.वि.सा. अंक www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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