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________________ गिराकर भूमिसात कर देता है। बड़ी बात तो यह है कि सम्प्रदाय के नाम पर आदमी के कंधे का उपयोग वैशाखी की तरह हो जाने के बाद भी आदमी को भनक नहीं पड़ती। वैशाखी की तरह, कभी चप्पलों की तरह, जिस सम्प्रदाय का उपयोग हो, वह सम्प्रदाय घिसता ही जाएगा और चप्पलों से बढ़कर मुकुट बन ही नहीं सकेगा। यदि कहँ कि मेरी दृष्टि में सम्प्रदाय वह कीचड़ है, जहाँ जो फंसता है, फँसा ही रह जाता है; फंसा हुआ आदमी उसी में रम जाता है, धीरे-धीरे वह निकलकर भागने का लक्ष्य भी खो देता है, और दूसरे पथिकों को फँस जाने की कामना करने लगता है, चेष्टा करता है। सम्प्रदाय : कमजोर आदमी के शोषण का एक ऐसा आकर्षक लिहाफ (कव्हर) है, जो दीखता नहीं, पर हर उस आदमी पर चढ़ा हुआ होता है, जो कहीं शोषक है, कहीं शोषित। 'समाजगत' और 'सम्प्रदायगत' में काफी अन्तर है। जब आप मंदिर के आँगन में महावीर-जयंती मनाते हैं तो वह समाजगत' कहलाता है, पर जब आप मकान के कमरे में मुन्ने का 'कन्छेदन' मनाते हैं तो वह सम्प्रदायगत कहलायेगा। समाजगत' में व्यापकता के सूत्र हैं, 'सम्प्रदायगत' में संकीर्णता के । समाज के कार्य, बोलचाल संसदीय होंगे, सम्प्रदाय के घरेलू । कृपया, घरेलू का अर्थ गार्हस्थिक न लें। हमारी--आम आदमी की--प्रगति सम्प्रदाय से चलकर समाज तक आती है और अवरुद्ध हो जाती है। वह क्षण हम पकड़ते ही नहीं जब हमारा 'चिन्तन-मनन' 'सम्प्रदायगत' से ऊपर, 'समाजगत' से भी ऊपर 'राष्ट्रगत' कहलाये।। इसके लिए बैठना जहाँ का तहाँ है, बस, चिन्तन और विचार-धारा को ही आगे दायें-बायें बढ़ाना होता है। मोड़ना होता है। हम एक अच्छे सम्प्रदाय के सदस्य कहलाने के बजाय एक अच्छे देश के नागरिक कहलायें तो हमारा राष्ट्रीय गौरव बढ़ता है । सम्प्रदाय अग्नि है, या यों कहें साम्प्रदायिकता अदृश्य ज़हर है, जिससे बचकर चलने वाला आदमी ही अधिक प्रगति कर सका है, अधिक देशभक्त बन सका है। शेष जो सम्प्रदायगत कार्यों में, सम्प्रदायगत धर्म में, सम्प्रदायगत संस्था से हिलगे-टंगे हैं वे अपने ही घर में बाजार लगाने का शौक पूरा कर रहे हैं। हाँ, इससे एक अंधा लाभ अवश्य है, सम्प्रदाय के नाम पर हजार-पाँच सौ लोगों के बीच एकता, या संगठन के सूत्र अवश्य पुष्ट किये जा सकते हैं, पर उन सूत्रों से जो संगठन बनते हैं, वे और उनके कार्य, देशहित तो क्या समाजहित में तक नहीं गिने जा रहे हैं। वर्षों तक सम्प्रदाय को जीवित रखने वाले भी आखरी में अपने कार्यों की तुलना दीवार से सिर मारते रहने के तुल्य मान बैठे हैं। संक्षेप में बात समाप्त करनी है तो यह जान लीजिये कि 'सम्प्रदाय' में केवल ‘दंगे', 'नंगे' और 'चंगे' को महत्त्व मिलता है। ऐसे तत्त्व ही सम्प्रदाय अधिक चलाते हैं। 'दंगे' आप जानते हैं--झगड़े-फसाद। ‘नंगे' से मेरा मतलब गरीब वर्ग से है, सर्वहारावर्ग से। 'चंगे' से एक विचित्र अर्थ लिया है--चुस्त-चालाक और अपनी ज़िद पर अड़े रहने वाले स्वार्थी लोग। सम्प्रदायों में यही-यही देखने मिले हैं और साम्प्रदायिकता की आग इन तीनों तत्त्वों के मिलन से भड़कती है। तीर्थंकर : नव-दिस. ७८ ८५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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