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________________ बन गये। हमने सिद्ध करना शुरु किया--'हम बड़े सम्प्रदाय के हैं इसलिए हम बड़े हैं। तब लगा हमारे सम्प्रदाय का दर्जी भी बड़ा रहा होगा। शेष सम्प्रदाय छोटे हैं, सो उसके लोग भी छोटे हैं, दर्जी भी। यह है हमारे तथाकथित सम्प्रदाय के निर्माण-काल और निर्माता का इंट्रोडक्शन । साम्प्रदायिकता की होड़ में आदमी-आदमी से बँटता गया, और बंट-बंट कर नये सम्प्रदाय बनाता गया, बंटा हुआ आदमी अपने साथ सम्प्रदायों को भी बांट ले गया। इसे आप इस तरह समझें--एक थाली में मिठाई जमाइये, जम जाने के बाद एक पैने चाक से उसे थप्पियों (टुकड़ों) में काटिये। थप्पियाँ उठाइये--वह मिठाई ही मानी जाएगी, पूरी थाली उठाइये--वह भी मिठाई होगी। ठीक ऐसा ही हमारा आदमी थप्पियों के रूप में बंटता चला गया किसी पैने' के माध्यम से और वह हर क़दम पर सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता रहा । जो आदमी आदमी न रह पाया, सम्प्रदाय हो गया/कर दिया गया। सम्प्रदाय में बंटा आदमी तब कोई नया स्वरूप न ले सका, उसी के अंशज-वंशज में विभक्त होता गया। आदमी ज्यों-ज्यों आदमी से बंटता-हटता गया; घोर सम्प्रदायवादी होता गया। एक सम्प्रदायवादी से सार्वजनिक हितों की आशा नहीं की जा सकती--यह सभी जानते हैं। सम्प्रदाय व्यक्ति के गुलाम-काल में जहर सिद्ध होता है। गुलाम आदमी अपना सम्प्रदाय जताकर कुछ नहीं पा सकता, न ही अपने तथाकथित सम्प्रदाय की रक्षा के सूत्र ढंढ़ सकता है, परन्तु व्यक्ति के सत्ता-काल में सम्प्रदाय एक अमृत-कलश सिद्ध होता है, जब वह मात्र सम्प्रदाय के आधार पर अपनी सत्ता के सूत्र सबल करता है और सत्ता का सुख भोगता है। सत्ता बनाम राजनीति में सम्प्रदाय की व्यह-रचना पूर्वकाल से ही किंचित् सफलता का श्रेय देती रही है सत्ता-पुरुषों को। कुछ ठहरकर एक और बिन्दु पर विचार करना होगा। समाज और सम्प्रदाय की भूल-भुलैया पर। समाज अलग है, सम्प्रदाय अलग है, पर स्वार्थ-सिद्धि के समय हमारे चश्मे से दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाता (परन्तु अन्तर है)। समाज का आधार 'प्राणी' है, सम्प्रदाय का आधार जाति है, वर्ग है, वर्ण है। समाज व्यापक क्षेत्रफल लेकर चलता है, सम्प्रदाय का क्षेत्र सीमित है, किसी घेरेबन्दी में है, अतः समाज और सम्प्रदाय की शाब्दिक भूल-भुलैया सघन भी है, गहन भी है। इसे हम समझते भी हैं, संभवत: इसीलिए समाज के नाम पर हमारे पास सहानुभूति है, सम्प्रदाय के नाम पर 'चुप्पी' । सम्प्रदाय : मनुष्य द्वारा निर्मित किन्तु अनिर्णित वह विवाद' है जिसका उपयोग स्वार्थसिद्धि और अहम तुष्टि के लिए किया जाता है। सम्प्रदाय मेरी दृष्टि में भी वही-वही कुछ हो सकता है जो आपकी दृष्टि में है। जब मैं राजनीति के मंच पर स्थापित एक सलौनी कुर्सी पर बैठना चाहता हूँ तो मुझे कुछ मतों की आवश्यकता होती है। जरूरी है कि ये 'मत' आदमियों के ही हों (जानवरों के मत अभी सम्मिलित नहीं किये जाते, चलन नहीं है, पर सम्प्रदाय के नाम पर एक दिन जानवरों के मतों की भी गणना होने लगेगी); किन्तु जब, आदमी से समर्थन पाने में कुछ कठिनाई होने लगती है, तब हमारे भीतर का चुस्त राजनीतिज्ञ जादू करता है, वह उस आदमी-विशेष को सम्प्रदाय से जोड़ देता है और खुद को सम्प्रदाय का परम चिन्तक विज्ञापित कर समर्थन के टुकड़े बटोर कर ले जाता है। कभी-कभी सम्प्रदाय का उपयोग एक वैशाखी की तरह भी होता है। वैशाखी पर चढ़ने वाला, चढ़कर आसमान के तारे छू लेता है और बाद में अपने ही पाद-प्रहार से उस वैशाखी को ८४ आ.वि.सा. अंक www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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