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________________ ललित व्यंग्य सम्प्रदाय - यदि कहूँ कि मेरी दृष्टि में सम्प्रदाय वह कीचड़ है, जिसमें जो फंसता है फैसा ही रहता है, और फंसा हुआ आदमी उसी में रम जाता है। धीरे-धीरे वह उसमें से निकल भागने का लक्ष्य भी खो देता है, और दूसरों के फँस जाने की शुभकामना करने लगता है, प्रयत्न करता है। सम्प्रदाय : कमजोर आदमी के शोषण का एक ऐसा लिहाफ है, जो दीखता नहीं है, पर हर उस आदमी पर चढ़ा हुआ वह होता है, जो कहीं शोषक है, कहीं शोषित है। - सुरेश 'सरल' विभिन्न सम्प्रदाय बनाये किसने है ? इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास है, वह आधुनिक विद्वानों की तरह साधारण और पत्नियों की तरह आकर्षणहीन हो सकता है, पर है उत्तर, एक विवेचनापूर्ण उत्तर। आप अच्छा सुट (Suit) पहिन कर निकलते हैं घर से। रास्ते में मित्र मिल जाता है, वह पूछ बैठता --सूट कहाँ सिलाया यार, चमक रहा है, या सूट किसने बनाया ? सुन्दर है ! आपका ठाठ बना दिया है सूट ने, अतः आप दर्जी का ठाठ बनाते हुए बतलाते हैं-"अमुक टेलर्स' ने। आपके सम्प्रदाय भी दर्जी किस्म के लोगों ने ही तो बनाये हैं। ये दर्जी किसिम के लोग वे लोग हैं, जो अच्छे खासे कपड़े पहले काटते हैं, फिर सीने बैठते हैं। सीते उसी के माफिक हैं, जो उन्हें पसा देता है, पर कपड़ा सीने के बाद जो चिदियाँ बचती हैं. या बचा ली जाती हैं उनसे किसी अन्य के कपड़े की सुडोलता बढाई जाती है । चन्द उपजातियों का विवर्त--सम्प्रदाय--भी तो पहले कपड़े की तरह काटा जाता है, फिर उससे काट कर निकाले गये चिदीनुमा आदमी को किसी अन्य सम्प्रदाय में ठूसकर उसकी सडोलता बढायी जाती है। यह कटाई-सिलाई का 'विशेषज्ञ' युगारम्भ से सम्प्रदाय बनाकर पहिनता-पहिनाता रहा है। अच्छा सूट, बेकार सूट, ओछा सूट, ढीला सूट; की तरह अच्छा सम्प्रदाय, लीचड़ सम्प्रदाय, प्रबुद्ध सम्प्रदाय, सुषुप्त सम्प्रदाय । ___ सम्प्रदाय का उपयोग भी हम सूट की भाँति करते हैं। सम्प्रदाय पहिनने या उतारने की वस्तू नहीं है, फिर भी उसका इस्तेमाल सूट जैसा ही करते हैं हम। सूट भी तो मात्र पहिनने, या उतारने की वस्तु नहीं है । सूट से जो अन्य काम सधते हैं. वे हैं--रौब गाँठने के, या स्तर बनाने के । सम्प्रदाय से भी तो हम यही काम ले रहे हैं--सम्प्रदाय के नाम पर अपना स्तर बताने-बनाने का काम । सामने वाले से उच्च दीखने के लिए किसी दर्जी से हमने उच्च किसिम का 'सम्प्रदाय' सिला डाला। बड़े दर्जी से निर्मित बड़े (महान् ) सम्प्रदाय के हम एक अंग तीर्थकर : नव-दिम. ७८ ८३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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