________________
ऐसे सुलभ उत्तरों का हमारे जीवन में कदाचित् कोई महत्त्व भी नहीं है। जीवन के ठीक-ठीक उत्तर तो स्वयं ही अपनी शक्ति और बुद्धि से ढूंढ़ने पड़ते हैं। आज मात्र डिग्रियों को लोग शिक्षा का मानदण्ड मान बैठे हैं। जितनी ऊंची डिग्री व्यक्ति के पास होगी, वह उतना ही योग्य समझा जाएगा। वह उतनी ही ऊँची नौकरी का प्रत्याशी माना जाएगा। ऊंची डिग्री, ऊँची नौकरी, ऊँचा वेतन और ऊँची सुख-सुविधाएँ ही आज जीवन की पर्याय बन गयी हैं। और इसीलिए किसी भी तरह डिग्री पा लेने की कशमकश आज जीवन का शीर्ष-बिन्दु है। किसी भी तरह येन-केन-प्रकारेण हमें परीक्षा पास करनी है। अच्छी श्रेणी पानी है और फिर अच्छी नौकरी। जीवन का यही एकमात्र लक्ष्य और एकमात्र ध्येय है, जिसे पाने के लिए हम कुछ भी कर सकने के लिए लालायित हैं, प्रयत्नशील हैं; पर ज्ञानियों की बात की जाए, मनीषियों की बात की जाए और महापुरुषों की बात की जाए, तो ये ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ, ऊँचा पद और प्रतिष्ठा उनके लिए निरी माटी तुल्य थे। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे। संत थे। एक जुलाहा-मात्र । पर अपने व्यवसाय में निष्णात थे। इस कला का धनोपार्जन से कोई संबंध नहीं था। वे तो बस अपनी कला पर मनःप्राण से निछावर थे। कला के प्रति समर्पित होना आसान नहीं है। कबीर को बड़ी-बड़ी पोथियों से कोई प्रयोजन नहीं था। वे तो बस संत थे। मनीषी थे । प्रेम का बस ढाई आखर ही जानते थे और इस ढाई आखर के मर्म को अनुभूत कर वे सारे विश्व में अमर हो गये । उनका कहना भी था--ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय । जिसने भी प्रेम के इस ढाई अक्षर के मर्म को जान लिया, उसने जीवन का सत्य पा लिया, जीवन को समझ लिया और सही अर्थों में जीवन जी लिया। पण्डित होने के लिए किसी डिग्री की जरूरत नहीं है। मोटी-मोटी किताबों में सिर खपाने की जरूरत नहीं है । पण्डित होने के लिए केवल ज्ञानवान होना आवश्यक है; अनुभवी होना आवश्यक है। जो व्यक्ति जन्मना अपनी श्रेष्ठता का दम्भ भरते हैं या प्रमाण-पत्रों को अपनी विद्वत्ता का प्रमाण मानते हैं, वे बड़े धोखे में हैं।
डिग्रियों से व्यक्ति ज्ञान नहीं पा सकता वरन् एक स्पर्धा में उतरता है। स्पर्धा दूसरों से आगे बढ़ने की, दूसरों से अच्छा पद पाने की, समाज में प्रतिष्ठा पाने की, और भी अधिक सुख-सुविधाएँ पाने की। स्पर्धा का कहीं अन्त नहीं है। जितने भी महापुरुष हुए हैं, उन्होंने जीवन को निरर्थक कार्यों में, लक्ष्यहीन मार्गों में नहीं भटकाया है । किसी ने कहा भी है--'हमारे पास समय बहुत थोड़ा है और हमें चलना बहुत है। हमें बहुत से कार्य करने हैं। हमारे सामने तो पग-पग पर स्पर्धा है। किस-किसको पराजित किया जाए ? किस-किस को चुनौती दी जाए। सारी महत्त्वपूर्ण बातों को भूलकर केवल दूसरों को जीतने और उन्हें पराजित कर आगे निकल जाने की होड़ में यही तो होता है कि व्यक्ति को अपने बहुमूल्य समय और अपनी बेशकीमती शक्ति को नष्ट कर स्वयं पराजित हो बैठना है। उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यही स्पर्धा मनुष्य-मनुष्य के बीच जहर के बीज बोती है। यही उनके बीच विभाजन का कारण बनती है।
(शेष पृष्ठ ७८ पर)
• आ. वि. सा. अंक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
- www.jainelibrary.org