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________________ बचे हम प्रश्नों की भीड़ से +DH "हमारे जीवन में जो भी समस्याएँ हैं, जो भी प्रश्न हमारे सामने हैं, और इनके जिन उत्तरों की तलाश हमें है, वे दूसरों से कभी नहीं पाये जा सकते, और यदि कभी उनसे मिले भी तो ऐसे सुलभ उत्तरों का हमारे जीवन में कदाचित् ही कोई महत्त्व हो । जीवन के ठीक-ठीक उत्तर तो हमें स्वयं अपनी शक्ति, विश्वास, और बुद्धि से ढूंढ़ने पड़ते हैं। -डॉ. कुन्तल गोयल हम प्रश्नों की भीड़ में खड़े हुए हैं और प्रश्नों को ही जी रहे हैं। प्रश्नों के बोझ को सिर पर लादे, मन-मस्तिष्क को भारी किये, ऊबे-थके, निराश से, उलझन में पड़े एक ही स्थान पर खड़े हैं। यह भूलते हुए कि कुछ प्रश्न निरर्थक भी होते हैं, जिनका कोई प्रयोजन नहीं होता, कोई उत्तर नहीं होता। ऐसे अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए हम अपना कितना समय और कितनी शक्ति नष्ट कर देते हैं, इसका आभास तक हमें नहीं होता । हम तो बस गणित के समीकरण की तरह तत्काल उनका हल पा लेना चाहते हैं और जितनी अधिक हम शक्ति लगाते हैं, उतना अधिक हम प्रश्नों में उलझते जाते हैं । इस सन्दर्भ में एक विचारक का कथन है कि वे ही प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं, वे ही उत्तर खोजने जैसे हैं जिनसे हमारा जीवन बदलता हो, जिनसे हमारे जीवन में क्रान्ति आती हो, जिनसे हमारा जीवन नया होता हो, जिनसे हमारा अनुभव और ज्ञान नयी दिशाओं को जानता हो, किन्हीं नये क्षेत्रों में प्रवेश करता हो। जिन उत्तरों और प्रश्नों से हम वहीं-के-वहीं खड़े रह जाते हों, उनका कोई मूल्य नहीं है अत: उनको न तो कभी पूछने की जरूरत है, न उनके उत्तर खोजने की। जीवन में फर्क तभी पड़ता है जब किसी व्यक्ति को कुछ स्पष्ट बोध होते हों। प्रश्नों से घिरे रहकर अपने मन-मस्तिष्क को उत्तर ढूंढ़ने में खपा देने से कुछ प्राप्त नहीं होता। प्राप्त होता है कुछ, उपलब्धि होती है कुछ, तो स्वयं के अनुभव से और ज्ञान से । ज्ञानवर्द्धन के लिए उपयोगी होता है चिन्तन और मनन । किसी से कुछ पूछकर या मात्र सोच-विचार लेने से ही हम कुछ नहीं पा सकते । पाने के लिए तो हमें निरन्तर अपने जीवन का विकास करना होगा, अपने अनुभवों से लाभ उठाकर संचित ज्ञान-राशि में गहराई लानी होगी। ज्ञान का विस्तार और गहराई ही जीवन को गति देती है, उसका विकास करती है। एक बात और भी है। हमारे जीवन में जो भी समस्याएँ हैं, जो भी प्रश्न हमारे सामने हैं, और जिन उत्तरों की हमें तलाश है, वे दूसरों से कभी नहीं पाये जा सकते और तीर्थकर : नव-दिस. ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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