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संयम तप सहिष्णुता में हो, जीवन का सुख पहिचाना ।।
बदल दिये परमार्थ भाव में, जिसने अर्थ - स्वार्थ सारे । आत्म-तत्त्व को किया उजागर, भंवर, निर्जरा व्रत धारे ॥ बंद किये बाहर पट जिसने, हँसकर अन्तर्-पट खोले । प्रेम-सने ई आखर बोल गया सब अनबोले ||
में,
किया सजग कर्मों के बँध से, ली समाधि सद्ज्ञान की । वाणी मुखरित हुई धरा पर, महावीर भगवान् की ।। सूरज ने वे दिन देखे हैं, तारों ने देखी रातें । करता था जो अपने ही से सिद्धि साधना की बातें ||
आगे बढ़ता गया अग्नि- समान
उठा
रात-दिन,
ऊपर ।
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आत्म-तेजसे,
हुए पलायन विषय वासना के विषधर ॥
आत्म-प्रेम का शंख फूंककर बैठ गया हर पनघट पर । बकरी-बाघ लगे जल पीने, समता - सरिता के तट पर ।।
जाति-पाँत का, ऊँच-नीच का,
भेद न जिसने पहिचाना | मानव-सेवारत जीवन सर्वोपरि जीवन जाना ॥
ही,
छल-प्रपंच की घास-फूस को, करता रहा सदा स्वाहा । कभी किसी का सपने में भी, जिसने बुरा नहीं चाहा ।।
द्वन्द्व-आचरण-भार पलक का, सह न सका जो आँखों पर । पारदर्शिनी दृष्टि, न जिसकी - टिकी कभी भी लाखों पर ।।
जिसने अंतिम रेस न खींची, अनेकान्त के ज्ञान की । वाणी मुखरित हुई धरा पर, महावीर भगवान् की ।।
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बाबूलाल 'जलज'
आ. वि. सा. अंक
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