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________________ ८० संयम तप सहिष्णुता में हो, जीवन का सुख पहिचाना ।। बदल दिये परमार्थ भाव में, जिसने अर्थ - स्वार्थ सारे । आत्म-तत्त्व को किया उजागर, भंवर, निर्जरा व्रत धारे ॥ बंद किये बाहर पट जिसने, हँसकर अन्तर्-पट खोले । प्रेम-सने ई आखर बोल गया सब अनबोले || में, किया सजग कर्मों के बँध से, ली समाधि सद्ज्ञान की । वाणी मुखरित हुई धरा पर, महावीर भगवान् की ।। सूरज ने वे दिन देखे हैं, तारों ने देखी रातें । करता था जो अपने ही से सिद्धि साधना की बातें || आगे बढ़ता गया अग्नि- समान उठा रात-दिन, ऊपर । Jain Education International आत्म-तेजसे, हुए पलायन विषय वासना के विषधर ॥ आत्म-प्रेम का शंख फूंककर बैठ गया हर पनघट पर । बकरी-बाघ लगे जल पीने, समता - सरिता के तट पर ।। जाति-पाँत का, ऊँच-नीच का, भेद न जिसने पहिचाना | मानव-सेवारत जीवन सर्वोपरि जीवन जाना ॥ ही, छल-प्रपंच की घास-फूस को, करता रहा सदा स्वाहा । कभी किसी का सपने में भी, जिसने बुरा नहीं चाहा ।। द्वन्द्व-आचरण-भार पलक का, सह न सका जो आँखों पर । पारदर्शिनी दृष्टि, न जिसकी - टिकी कभी भी लाखों पर ।। जिसने अंतिम रेस न खींची, अनेकान्त के ज्ञान की । वाणी मुखरित हुई धरा पर, महावीर भगवान् की ।। For Personal & Private Use Only बाबूलाल 'जलज' आ. वि. सा. अंक www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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