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वाणी मुखरित हुई धरा पर
सुरभित फूलों से कोई भी, जिसने नहीं अपेक्षा की। आँगन के तुलसी-पौधों की, पल-भर भी न उपेक्षा की।
जिसने सत्य झाँकते . देखा, शिशु की भोली आंखों में। जिसने देखी नव उड़ान-गति,
शान्त विहग की पाँखों में।। जिसने घर-घर जाकर बाँटी, त्याग-अपरिग्रह-बूटी को। फेंक दिया तत्क्षण उतारकर, हीरा-जड़ित अंगूठी को।।
जन्म-दिवस पर नहीं उड़ाये, यश-वैभव के गुब्बारे। शान्ति-कुंज में रहा देखता,
समता-जल के फव्वारे । चला पुरानी लीक छोड़कर, चला छोड़कर पगडंडी। आत्म-विदाई समारोह पर, भरी नहीं सांसें ठंडी॥
अजर - अमर - अक्षय - अविनाशी, सत्य-समाया कण-कण में। जिसे मिली अनुभूति अलौकिक, ज्ञान-संपदा वितरण में।
जिसने की दिन-रात साधना, मानव के कल्याण की। वाणी मुखरित हुई धरा पर, महावीर भगवान् की। प्राण दीप की ज्योति जलाकर, रोज मनाई दीवाली। इतनी भरी रोशनी घर-घर, रहा न कोई घर खाली।
आत्म-प्रेम की पिचकारी में, संयम की केशर घोली। समता की कुंजों में जिसने,
जीवन-भर खेली होली। जिसने धरती के आँगन में, बीज' अहिंसा का बोया। परिग्रह, तृष्णा, मोह, स्वार्थ का, बोझ न कंधों पर ढोया।
ब्रह्म-शोध की चर्या को, जिसने ब्रह्मचर्य माना।
तीर्थकर । नव. दिस. ७८
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