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( सद्गुरु की पहचान पृष्ठ ५८ का शेष )
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आपको ही पीट डाला। मुझे क्या पता था कि आप ही दादू भगत हैं । आप तो सड़क साफ कर रहे थे ।'
दादू मुस्कराते हुए बोले- 'मैं सड़क ही तो साफ करता हूँ । आत्म-दर्शन की ओर जाने वाली सड़क बिल्कुल सीधी है । इस पर जब काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार की कँटीली झाड़ियाँ उग आती हैं, तब लोगों के लिए उस पर चलना कठिन हो जाता है । बहुत अधिक झाड़ियाँ उग जाएँ, तो मार्ग लुप्त हो जाता है । वह आध्यात्मिक जगत् की बात है, यह भौतिक संसार की । इस सड़क पर झाड़बहुत हैं। उन्हें दूर कर रहा हूँ । जिससे यात्रियों को कष्ट न हो ।'
कोतवाल ने दुःख के साथ कहा - 'परन्तु मैं जब आपसे पूछता रहा तब आपने बताया क्यों नहीं कि आप ही दादू भगत हैं ? मुझे क्षमा कर दीजिये, मुझसे बहुत बड़ा पाप हुआ है । '
दादू जोर से हँस पड़े; बोले - ' कुछ नहीं किया तुमने । एक व्यक्ति एक घड़ा खरीदता है, तो उसे भी ठोक-बजा कर देख लेता है । तुम तो जीवन का माग दिखाने वाले गुरु को खोज रहे थे । ठोक-बजा कर देख लिया तो हर्ज़ ही क्या हुआ ?'
आनन्द स्वामी
( बचें हम, प्रश्नों की भीड़ से : पृष्ठ २८ का शेष )
गांधीजी ने स्पर्द्धा से दूर रहकर मनुष्य को श्रम की महत्ता में ही तल्लीन रहने की शिक्षा दी है। श्रम के प्रति ईमानदारी और लगन ही व्यक्ति को ऊँचा उठाती है । उसे सम्माननीय बनाती है । हम क्यों भूलें -- एक मोची या जुलाहा समाज के लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण और उपयोगी होता है, जितना एक शिक्षक, डॉक्टर या इंजीनियर । कहा जाता है कि अब्राहम लिंकन जब अमेरिका के राष्ट्रपति बने तब एक ईर्ष्यालु व्यक्ति ने उन पर व्यंग्य किया—- " प्रेसीडेंट होने पर शायद तुम भूल जाओ कि कभी तुम्हारे पिता जूते सिया करते थे ?” अब्राहम लिंकन ने जब यह सुना तो पिता की स्मृति में उनकी आँखें भर आयीं । बड़े भाव-विभार होकर वे बोले – “मैं कृतज्ञ हूँ आपका कि आपने ठीक समय पर मुझे पिता का स्मरण दिला दिया । मुझे उन पर बड़ा गर्व है कि मैं उनका पुत्र हूँ । शायद मैं उतना अच्छा राष्ट्रपति नहीं हो सक गा जितने अच्छे वे मोची थे। उन्हें मैं कभी कैसे भूल सकता हूँ ?" यही है सच्चे ज्ञान का मर्म ।
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हम आज एक छलावे की ज़िन्दगी जी रहे हैं । हम वह नहीं हैं, जो दिखायी देते हैं । हम बाहर कुछ हैं और भीतर कुछ। कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं । भीतर और बाहर के बीच पड़े पर्दे को उठाकर अपनी समग्रता का अहसास साधारण बात नहीं है । यही मनुष्य को ऊपर उठाता है। सुकरात, लिकन, गांधी आदि महापुरुष ऐसे ही थे जिन्होंने अपना पूरा रूप खोलकर लोगों के सामने रखा था और उसी रूप में लोगों ने उन्हें अपनाया था; उन पर अपनी श्रद्धा अर्पित की थी । श्रद्धा को पाने के लिए व्यक्ति को बाहर नहीं, अपने आपसे जझना होता है । अपने को तराश कर कुन्दन बनाना पड़ता है और अन्त में स्वयं ही उसे सारे प्रश्नों का उत्तर बन जाना पड़ता है । और यही उत्तर ज़िन्दगी का सही अर्थ बन जाता है । 3
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आ. वि. सा. अंक
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