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और दूसरे सब के प्रति अरति का भाव जाग्रत होता है, जो नारकीयता का परिचायक है, मापदण्ड है । अपरिग्रह जीवन की जीवन के रूप में साधना है। परिग्रह जीवन की वस्तुओं की प्राप्ति के साधन के रूप में नियोजन तथा उसमें सफलताअसफलता के आधार पर जीवन का विकृत मूल्यांकन है। इस दृष्टि को हमें स्पष्टतः समझ लेना चाहिये।
यूनान में एक राजा था सिसिफस। उसने, कहते हैं कि मृत्यु को बन्दी बना लिया। अब मरना बन्द हो गया सब जीवों का; लेकिन रोग कायम थे, बुढ़ापा कायम था, दुःख कायम थे, वेदनाएँ-व्यथाएँ कायम थीं; जिनसे मृत्यु एक छुटकारा थी। नया कुछ भी पैदा होना बन्द हो गया । पुराना सब कुछ जीर्ण-शीर्ण होकर भी बना रहा, और जर्जर होता गया; अन्ततः उसे मृत्यु को छोड़ना पड़ा। छूटते ही मृत्यु ने सिसिफस को अपना शिकार बनाया। मरने के बाद वह नरक में गया। वहाँ उसके लिए यातना की एक विशेष व्यवस्था की गयी। एक पहाड़ था। उस पर उसे एक विशालकाय गोल पत्थर हाथों तथा कन्धों से धकेल कर चढ़ाना पड़ता था। चोटी पर पहुँचते ही वह पत्थर लुढ़क कर फिर नीचे आ जात।। कहते हैं कि आज भी सिसिफस का उस चट्टान को अनन्तकाल तक उस पर्वत पर चढ़ाते रहने का तथा हर बार उसका लुढ़क कर नीचे आ जाने का क्रम जारी है। एक ऐसा लक्ष्य जिसकी पूर्ति में वह रात-दिन लगा रहता है, और जो पूर्ण होते ही पुनः हमें पूर्वस्थिति में ला देता है और एक ही कार्य बार-बार हमें करना पड़ता है। सब कुछ हमने उसी पर लगा रखा है। यह नरक सिसिफस को मिला; लेकिन इसी नरक की बात तो महावीर कह रहे हैं। वह जो कुछ अलभ्य पाने के लिए दिनरात आतुर हो कर दौड़ रहा है, उसे पाये बिना सन्तुष्ट नहीं होता, उसे पाने के सामर्थ्य का विश्वास नहीं होता, उससे विरत हो नहीं सकता, उसमें रत भी नहीं हो पाता; क्योंकि यह एक ही क्रम अनन्त बार अपने को दुहराता जाता है। यह सिसिफस की ही अवस्था है, बिना मौत के जीवन की, बिना दु:ख के सुख की, विरोध के शक्ति की असंभव पिपासा, जिससे आतुर होकर उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, किसी से भी स्नेह नहीं रहता, किसी पर विश्वास नहीं होता, कुछ भी वांछनीय नहीं लगता, कहीं आनन्द और सन्तोष की प्रतीति नहीं होती।
हर वर्ष संसार-भर के मानसिक चिकित्सालयों में लाखों-करोड़ों अवसाद (डिप्रेशन), चिन्ता-मनोस्नायुरोग (एंग्जाइटी), न्यूरोसिस, भय (फोबिया), उन्माद (मेनिया) तथा व्यक्तित्व-भ्रंश (डिमेन्सिया प्रिकोक्स) के रोगी आते हैं जिनको जीवन में कहीं कुछ भी एषणीय नहीं लगता, हर चीज से भय लगता है, निराशा होती है, दीनभाव बढ़ता है, अक्षमता का बोध फैलता है। वे सब महावीर के शब्दों में 'नारत' हैं, 'नारति' के 'निवासी' हैं, नारकीय हैं। उनकी अपनी अप्रज्ञा ने ही उन्हें ऐसा बनाया है। अपनी प्रज्ञा के जागरण से ही, वे इससे निकल सकते हैं। महावीर का सन्देश इसमें स्पष्ट है-'अपरिणाए कंदंति' (प्रज्ञा का निष्पन्दन, प्राणों का क्रन्दन)।
तीर्थंकर : नव. दिस. ७८
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