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मानसिक जो जीवन से ही पराङ्मुख है, वह आध्यात्मिक पुरुष नहीं हो सकता, चिकित्सालय का मरीज जरूर कभी-न-कभी होने वाला है । काण्ट के शब्दों में वह 'संकल्प के पागलपन' का शिकार है, महावीर के शब्दों में नारकी ।
जीवन पर जब हम कोई काल्पनिक मूल्य आरोपित कर देते हैं तब इस पागलपन की शुरुआत होती है, तब जीवन स्वयं अपने में कोई मूल्य नहीं रहता । वह केवल एक साधन बन जाता है किसी अन्य उपलब्धि का जो उसका मूल्य बन जाती है; तब जीवन में सन्तुष्टि स्वयं जीवन से नहीं, जीवन की सारी ऊर्जा लगा कर उस उपलब्धि पर पहुँचने में होती है । हम उसके जितना क़रीब होते हैं, उतना ही हमें अपना जीवन सार्थक लगता है, जितना उससे दूर होते जाते हैं, जीवन उतना ही निरर्थक हो जाता है । उस उपलब्धि तक पहुँचाने में सफलता ही जीवन से सन्तोष का, असफलता ही जीवन से असन्तोष की स्रोत बन जाती है । उस तक हम कभी पहुँच नहीं पाते, क्योंकि वह वस्तु नहीं, एक आदर्श होती है । जितना हम उसके समीप पहुँचते हैं, उतनी ही वह हमसे दूर होती जाती है । हम अपने को थका डालते हैं, उस तक पहुँचने की दौड़ में, और असफलता के साथ-साथ हमारी निराशा तथा जीवन के प्रति रागात्मकता का बोध कम होता जाता है । वह सुदूर आदर्श हमें इसलिए नहीं मिलता कि वह कोई वस्तु नहीं, वस्तु पर आरोपित विचार हैं । प्राप्य वस्तु तक पहुँचने के बाद भी हम असन्तुष्ट रहते हैं, क्योंकि उससे भी आगे कोई दूसरी वस्तु को हमारा आदर्श अपना लक्ष्य बना लेता है। और इस प्रकार यह एक अप्राप्य लक्ष्य के पीछे जीवन भर की थका देने वाली यात्रा है जिसका परिणाम होता है अपने आप से असन्तोष, जीवन से असन्तोष, दूसरों से असन्तोष, अपनी क्षमताओं से असन्तोष, अपनी परिस्थितियों से असन्तोष, हीनता की प्रतीति, ऊब, एकरसता, निराशा और सबके अन्त में अवसाद एवं मुमूर्षा ।
महावीर ने जो अपरिग्रह का सूत्र दिया, वह इसीलिए था कि जीवन को, जो स्वयं अपने में परिपूर्ण मूल्य है, किसी अन्य मूल्य की प्राप्ति का साधन न बनायें । हर वस्तु का मूल्य जीवन के प्रति उसकी उपादेयता के कारण है; लेकिन जीवन का मूल्य किसी वस्तु के प्रति उपादेयता पर नहीं टिकाया जा सकता । अपरिग्रह का अर्थ वस्तु का अभाव नहीं, वस्तु की परवाह का अभाव है; इसीलिए महावीर ने यहाँ तक कहा कि अपरिग्रही के मस्तक पर राजमुकुट भी रखा हो तो भी उसका स्वभाव नहीं बदलता, वह परिग्रही नहीं होता । परिग्रह वस्तु का त्याग नहीं, हर चीज के प्रति अपने जीवन की दासतामयी दृष्टि का त्याग है; जीवन को किसी भी चीज का साधन मानने की विकृत दृष्टि का सुधर जाना है । फिर जीवन में चाहे कुछ भी न रहे, या सब कुछ रहे, प्रज्ञावान पुरुष के लिए इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । अप्रज्ञा ही जीवन की वस्तु जगत् की उपलब्धियों का, जो खुद जीवन के प्रति उपयोगिता के कारण ही मूल्यवती हैं, साधन बना कर उनके आधार पर जीवन का मूल्य आँकती है । यहीं से हमारा अपने प्रति, अपने देश - काल-भाव क्षेत्र
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आ. वि. सा. अंक
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