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जीता हुआ है जीवन-मरण में और हमारी मखौल उड़ा रहा है। हमें हर किसी से डाह है, और अपने प्रति हरेक की डाह का सन्देह हमें सबसे पहले होता है। हमें अपने जीवन में जो प्राप्त है, उससे संतोष नहीं है और जो अब तक प्राप्त नहीं कर सके हैं, उसे प्राप्त कर सकने की अपनी क्षमता में विश्वास नहीं। अपने अन्तर को टटोल कर देखें तो कमोबेश यही बात हम सब अपने भीतर कहीं-न-कहीं, किसीन-किसी क्षण पाते हैं। हम इस भ्रम में न रहें कि नरक कहीं और है जहाँ मरने के बाद किसी को जाना होता है; नरक कहीं नहीं है, और सर्वत्र है। वह किसी देश या काल में स्थित नहीं है। लेकिन हर देश में हर काल में व्यक्ति ने अपने भीतर अपना नरक बनाया है, उसे भोगा है। अब भी बना रहा है, भोग रहा है। भविष्य में भी बनायेगा और भोगेगा।
कुरान में कहा गया है-"जानते हो, दोज़ख क्या है ? वह एक आग है जो हृदय के तल में सुलगती हैं और जिसकी लपटें उसे चारों ओर से ऊपर तक आवृत्त कर प्रतिपल जलाती हैं।" वह आग कहीं जमीन के नीचे पाताल में नहीं है। न आकाश में किसी पिण्ड पर सुलग रही है। वह आग तो हमारे हृदय के तल में ही सुलगती है। नरक का जन्म हमारे ही भीतर होता है। वह हम स्वयं उत्पन्न करते हैं। उसमें हमें कोई नहीं डालता, हम स्वयं ही अपने को उससे ग्रस्त कर लेते हैं। हमारी जिजीविषा जब हार जाती है, हमारी मुमूर्षा उस पर जीत जाती है, तो हम 'नारकी' या 'नारत' बन जाते हैं, महावीर के शब्दों में-लेकिन ऐसा क्यों होता है ? हमारी जिजीविषा क्यों हार जाती है, मुमूर्षा से ? इसका उत्तर जो महावीर के पास है, वही आज के हर मनोविश्लेषक के पास भी है। शब्दावली दोनों की अलग-अलग है; लेकिन बात तो एक ही है । अगर मनोचिकित्सा की दृष्टि से महावीर का अध्ययन किया जाए तो बहुत कुछ ऐसा मिल सकता है जो फ्रायड व जुंग की कल्पना से भी गहन तथा व्यापक है। जीवन का मूल्य क्या है ? कुछ भी नहीं, क्योंकि हर चीज का मूल्य किसी के सन्दर्भ में ही आँका जा सकता है। जीवन के सन्दर्भ में हम हर चीज का मूल्य आँकते हैं। जीवन सबकी कसौटी है, लेकिन जीवन की कोई कसौटी नहीं। जीवन से ऊपर कोई सत्ता ही नहीं। मृत्यु भी नहीं; क्योंकि जीवन-मृत्यु के दोनों ओर रहता है, पूर्व भी, पश्चात् भी। जीवन अपने में सर्वोपरि मूल्य है। इसीलिए जिजीविषा सबसे बड़ी एषणा है। जीवन चेतना है, चेतना आत्मा का स्वभाव है। सारा-का-सारा अध्यात्म चेतना के अनावरण का ही विज्ञान है। सारी-की-सारी साधनाएँ जीवन को उसकी सार्वभौम सत्ता में पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए ही हैं। शरीर भी एक ग्रन्थि है, जो जीवन को मृत्यु से बाँधती है; अतः उसका भी अतिक्रमण अध्यात्म का लक्ष्य बना। अध्यात्म जीवन से पलायन नहीं, जीवन को उसे सीमित करने वाली ग्रन्थियों से मुक्त कर सर्वोपरि एवं सार्वभौम परमसत्ता के रूप में प्रतिष्ठित करने का उपक्रम है। अतः आध्यात्मिक पुरुष जीवन से पराङमुख नहीं, उसके अभिमुख हो कर चल रहा है।
तीर्थकर : नव . दिस. ७८
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