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________________ सन्धायक थे। भैषज्य पदार्थों पर उन्हीं के भाषणों को पढ़ रहा था। एक स्थान पर उन्होंने वैसी ही बात कही जो महावीर ने कही। अन्तर इतना ही है कि महावीर का तल अध्यात्म का है, उनका चिकित्सा-विज्ञान का। वे प्रख्यात होमियोपैथ डॉ. कैण्ट थे। उन्होंने कहा-“द हाइएस्ट लव्ह इज़ द लव्ह ऑफ लाइफ, एण्ड व्हेन एन इन्डिव्हिज्युअल सीजेज टू लव्ह हिज़ ओन लाइफ, एण्ड इज वेअरी ऑफ इट, एण्ड लोथ्स इट, एण्ड वान्ट्स टू डाइ, ही इज़ ऑन द बॉर्डरलाइन ऑफ इन्सेनिटी, इनफेक्ट देट इज़ एन इन्सेनिटी ऑफ द विल" (सर्वोपरि प्रेम जीवन से प्रेम है, और जब एक व्यक्ति का अपने जीवन से भी कोई प्रेम नहीं रह जाता, वह उससे ऊब जाता है, उससे विरक्त हो जाता है, और मृत्यु को चाहने लगता है, तो वह पागलपन के कगार पर खड़ा है । वास्तव में यह हमारे संकल्प का पागलपन ही है) । मानसिक अवसाद सदा हुआ है। प्राचीनकाल में भी इसके उदाहरण मिलते हैं; लेकिन आज तो यह एक व्यापक व्याधि बन कर सर्वत्र फैल रहा है। जहाँ जाते हैं, जीवन के भार से थके-हारे, झुंझलाये हुए, अपने से ही असन्तुष्ट, अपने ही जीवन का किसी बहाने से अंत हो जाने के भीतर से अभिलाषी व्यक्ति मिलते हैं। वे स्वयं अपने-आपको समझ नहीं पाते। दूसरों के लिए उनकी स्थिति इसलिए समझ में नहीं आती कि वे उस स्थिति की कल्पना से भी भयभीत हैं। कल्पना से भय भी उनके भीतर उसी स्थिति के अस्तित्व का संसूचक है, जो अभी चेतन मन में उभर कर नहीं आयी है। वह जिसे हम अवसाद का रोगी कहते हैं उसके अचेतन ने आगे बढ़ कर चेतन मानस के नियन्त्रण को भंग कर दिया है तथा स्वच्छन्द हो उठा है। जिन्हें हम सामान्य व्यक्ति कहते हैं, वे भी बाहर से ही सामान्य हैं। उनके चेतन मानस का नियन्त्रण अभी अचेतन में संचित को उभर कर बाहर नहीं आने देता; लेकिन भीतर-ही-भीतर वे भी अवसन्न हैं। यह निन्यानवे डिग्री तथा सौ डिग्री जितना ही अन्तर है। और यह अन्तर किसी भी निमित्त का सहारा लेकर अचेतन मन कभी भी मिटा सकता है। वे भारत हैं, अतः नारकी हैं। फ्रायड ने मनोविज्ञान के क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी बात यह रखी कि हमारे भीतर जिजीविषा तथा मुमूर्षा दोनों का संघर्ष चलता रहता है। इसमें जिजीविषा का पलड़ा जब तक भारी है, हम स्वस्थ, प्रसन्न, सन्तुष्ट एवं सानन्द जीते हैं। मुमूर्षा भी प्रतिपल पोषित होती रहती है, अप्रिय एवं अकाम्य का अधिग्रहण कर। जिस दिन मुमूर्षा का पलड़ा भारी हो जाता है, उस दिन या तो मौत होती है, या पागलपन; या दोनों ही हो जाते हैं; प्रथम, संकल्प का पागलपन, फिर मृत्यु । हम जीना नहीं चाहते, इससे बड़ी नारकीयता और क्या हो सकती है ? हम किसी को पसन्द नहीं करते, न हमें विश्वास है कि कोई हमें पसन्द करता है। हमें हर व्यक्ति से घृणा है और हमें लगता है कि हर व्यक्ति हमसे घृणा करता है। हम अपने को सबसे हारा हुआ अनुभव करते हैं, और हमें लगता है कि दूसरा व्यक्ति ७४ आ. वि. सा. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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