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प्रेम का अभाव ही है नरक “अपरिग्रह का अर्थ वस्तु का अभाव नहीं, वस्तु की परवाह का अभाव है। इसीलिए महावीर ने यहाँ तक कहा कि अपरिग्रही के मस्तक पर राजमुकुट भी रखा हो तो भी उसका स्वभाव नहीं बदलता, वह परिग्रही नहीं होता। परिग्रह वस्तु का त्याग नहीं, हर चीज के प्रति अपने जीवन की दासतामयी दृष्टि का त्याग है।
- भानीराम ‘अग्निमुख' महावीर ने कहा-'जिन्हें किसी देश, काल, भाव, क्षेत्र से, न स्वयं से स्नेह है, न दूसरों से वे नारक हैं।
महावीर ने जिस शब्द का प्रयोग किया है, वह अद्भुत है। उसका अर्थ 'नारक' (नरकवासी) भी होता है, 'नारत' (जिसकी किसी चीज में रति नहीं हो) भी। दूसरा अर्थ ही उपर्युक्त व्याख्या के अनुरूप है; क्योंकि महावीर का कथ्य स्वयं ही इसकी पुष्टि कर रहा है। मूल प्राकृत है ‘णारय', जिसकी संस्कृत-छाया 'नारत' तथा 'नारक' दोनों होती हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक ही शब्द दोनों अर्थों में एक ही स्थिति का संसूचन करता है, वह है प्रेम का अभाव, रति का अभाव, मनःप्रसाद का अभाव।
दूसरे शब्दों में 'नारक' (नरकवासी) वही है जो 'नारत' (प्रेम-रहित) है। नारत का विच्छेद है न (अभाव)+रति (प्रेम, अनुराग, सन्तोष, प्रसन्नता, अनुकूलता का भाव, विश्वास, आस्था आदि सब सकारात्मक भाव); अतः 'नारत' नकारात्मक भावों, विचारों तथा दृष्टियों का पुंज है। नारकी वही है जो न किसी स्थान पर रहने से सन्तुष्ट है, न किसी हितकर समय में ही सन्तुष्ट रहता है, न उसके मन में प्रसन्नता का भाव ही पैदा होता है, न उसे कोई व्यक्ति अच्छा लगता है। वह खुद को भी पसन्द नहीं करता। अपने जीवन से भी सन्तुष्ट नहीं होता। हमेशा कुछ-न-कुछ पाने की तलाश उसे व्याकुल करती है, लेकिन कुछ भी पाकर यह बुझती तो नहीं । यही नरक है।
___ महावीर ने बार-बार कहा है कि जीवन से प्रेम सबको होता है। मृत्यु से किसी को नहीं। यह हर जीव का स्वभाव है। जिस स्थिति में व्यक्ति को अपने जीवन से ही प्रेम न रहे, वह मानसिक विकृति की, अन्तपीड़ा की चरम-सीमा है। यह बात सहज मनोवैज्ञानिक सत्य है, जो स्वयं प्रमाणित है। पश्चिम में एक बहुत प्रसिद्ध औषधि-विज्ञानवेत्ता हुए हैं। वे होमियोपथिक चिकित्सक एवं महान् अनु
तीपंकर : नव. दिस. ७८
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