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ब्रह्मचारीजी के भक्तों ने काफी समझाया कि इस समय समाज को काफी क्षुब्ध कर दिया गया है; सनातन समाज के प्रचार को छोड़ दीजिये, थोड़े दिन भ्रमण बन्द रखिये। भ्रमण में योग्य स्थान, आहार, व्याख्यान-आयोजनों की तो सुविधा रहेगी ही, पानी छानकर पीने वाले बहुत से लोग आपका अनछना लहू पीना भी धर्म समझेंगे।
भक्तों ने काफी उतार-चढ़ाव की बातें कीं; मगर वे टस-से-मस न हुए। वही धुन अविराम बनी रही। दिवाकर उसी गति से चलता रहा। आँधियाँ, मेह, तूफान, भूकम्प, राहु,केतु सब मार्ग में आये, मगर वह बढ़ता ही गया, उसकी गति में कोई बाधा न डाल सका
अहले हिम्मत मंजिले मक़सूद तक आ गये॥ बन्दये तक़दीर किस्मत का गिला करते रहे। -चकबस्त
उन्होंने सब संस्थाओं से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया, परन्तु स्याद्वाद विद्यालय के भूल से सदस्य बने रह गये। उन्हें यह ध्यान ही न आया कि उनका सदस्य रहना भी विद्यालय के लिए घातक समझा जाएगा; अतः उनको सदस्यता से पृथक् करने के लिए एक सर्कुलर जारी किया गया। स्व. रायबहादुर साहू जुगमन्दरदासजी के पास भी यह प्रस्ताव सम्मत्यर्थ आया। मैं उनके पास उस समय मौजूद था : वे पत्र पढ़कर विह्वल-से हो गये, मैंने घबराकर सब पूछा तो चुपचाप पत्र सामने रख दिया। मैं पत्र पढ़ ही रहा था कि बोले-"गोयलीय, उस विद्यालय के उत्सवों पर जैनेतर विद्वान् तो सभापति हो सकते हैं, जो न जाने कैसे-कैसे अपने विचार रखते हैं और वे ब्रह्मचारी सीतलप्रसादजी सदस्य भी नहीं रह सकते, जिन्होंने उसके निर्माण में जीवन समर्पित कर दिया है। कहते-कहते जी भर-सा आया, मेरे मुंह से साख्ता निकल पड़ा
. तेरी गली में मैं न चलं और सब चले ।
जो खुदा ही यह चाहे तो फिर बन्दे की क्या चले॥ -अज्ञात
सुना तो उठकर चले गये, फिर उस रोज़ मुलाक़ात न हो सकी। दूसरे रोज़ जो पत्र उन्होंने स्याद्वाद विद्यालय के अधिकारी वर्ग को लिखा, काश वह पुरानी फाइलों में मिल सके तो वह भी इतिहास की एक अमूल्य निधि होगा।
इन्हीं आँधी-तूफ़ानों के दिनों (सन '२८ या '२९) में पानीपत में श्रीऋषभजयन्ती उत्सव था। मैं और पं. वृजवासीलालजी वहाँ गये थे। रात्रि के ८ बजे होंगे, सभामण्डप में हिसाब आदि को लेकर खासी गरमागरम बहस हो रही थी। मैं सोच ही रहा था आज क्या खाक सभा जम सकेगी कि पं. वृजवासीलालजी बदहवास-से मेरे पास आये और एकान्त में ले जाकर बोले-“गोयलीय अनर्थ हो गया, अब क्या होगा?"
तीर्थकर : नव.दिस. ७८
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