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________________ संस्था की स्थापना से पूर्व उन सभी जैन संस्थाओं से त्यागपत्र दे दिया था, जिनसे उनका तनिक भी सम्बन्ध था; क्योंकि वे स्वप्न में भी उन संस्थाओं का अहित नहीं देख सकते थे; किन्तु जो अवतरित ही ब्रह्मचारीजी को मिटाने के लिएहुए थे, उन्हें केवल इतने से संतोष न हुआ। वे ब्रह्मचारीजी के व्यक्तित्व को ही नहीं, अस्तित्व को मिटाने के लिए दृढ़संकल्प थे। इस भीष्म पितामह पर धर्म की आड़ में प्रहार किये गये। आचार्य शान्तिसागरजी के संघ को उत्तर भारत में लाया गया। सम्मेदशिखर पर बृहद् महोत्सव का आयोजन किया गया और इस बहाने गाँव-गाँव और शहर-शहर में यह संघ भ्रमण करता हुआ सम्मेदशिखर पहुँचा। ब्रह्मचारीजी के व्यक्तित्व और प्रभाव के ईर्ष्यालु कुछ लोग इस संघ में घुस गये और उनके विरोध में विष-वमन करने लगे। धर्म के इन ठेकेदारों ने भोलीभाली धर्मभीरु जनता को धर्म डूबने की दुहाई देकर उत्तेजित कर दिया। ब्रह्मचारीजी का बहिष्कार कराया गया, और तारीफ़ यह कि यह बहिष्कार-लीला केवल एक ही जगह करके आत्मसुख नहीं मिला, गाँव-गाँव में यह लीला दिखायी गयी। मुनिसंघ और अखिल भारतीय महासभा का प्रमाण-पत्र ही इसके लिए काफी नहीं था, इस पर गाँव-गाँव की जनता के हस्ताक्षर भी ज़रूरी थे। मानो वे ऐसे मुजरिम थे कि क़त्लनामे पर जज़ के हस्ताक्षरों के अलावा चपरासी, पटवारी और चौकीदार के दस्तख़त भी लाजिमी थे लाओ तो क़त्लनामा मेरा, मैं भी देख लूं। किस-किसकी मुहर है, सरे महजर* लगी हुई ।। -(अज्ञात) यह ऐसी आँधी का बवण्डर था कि इसमें अच्छे-से-अच्छे ब्रह्मचारीजी के भक्त उखड़ गये। जो उखड़े नहीं, वे झुककर रह गये। दो-चार खड़े भी रहे तो ठुण्ठ की तरह बेकार , कुछ सूझ ही नहीं पड़ता था कि क्या किया जाए? उनके ही शहरों में उनकी ही उपस्थिति में यह सब कुछ हुआ, पर वे एक आह भी मुंह से न निकाल सके। पुलिस की बछियों का सामना करने वाले जैन कांग्रेसी भी इन अहिंसकों की सभा में बोलने का साहस न कर सके। बैरिस्टर चम्पतराय जी और साहित्यरत्न पं. दरबारीलालजी (वर्तमान स्वामी सत्यभक्त) जैसे प्रखर और निर्भीक विद्वान् साहस बटोरकर गये भी, मगर व्यर्थ। उन्हें भी तिरस्कृत किया गया, बेचारे मुंह लटकाये चले आये। “सीतलप्रसाद को ब्रह्मचारी न कहा जाए, उसे जैन संस्थाओं से निकाल दिया जाए, उसके व्याख्यान न होने दिये जाएँ, उसके बोलने और लिखने के सब साधन समाप्त कर दिये जाएँ” यही उस समय के जैनधर्मोपयोगी नारे उस संघ ने तजबीज़ किये थे। * वह कागज जिस पर न्यायाधीशों ने निर्णय लिखा हो । ७० Jain Education International आ. वि. सा. अंक For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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