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________________ मा ) MANका.. - mammi समयमा -- - -- - . . 卐 मासिकपत्र ॥ मना सामना शामिन Ar: बसमाधानमाम्बराबर.' 4:*:-invisaikw HAI Admus जानार - | Mini- Rohममा सनातनजनसमाज का उद्देश्य *कर जान aiane का प्रथम स्थान -un -madambagale :नाभ - A aka. Imw w w.मर-- wituiryanा । adm RRI . तब से यानी सन् १९२० से ब्रह्मचारीजी के स्वर्गासीन होने तक-रोहतक, पानीपत, सतना, खण्डवा, लाहौर, बड़ौत, दिल्ली आदि के उत्सवों पर पचासों बार साक्षात्कार हुआ, उत्तरोत्तर श्रद्धा बढ़ती गयी। जैनधर्म के प्रति इतनी गहरी श्रद्धा, उसके सनातनजेन प्रसार और प्रभावना के लिए इतना दृढ़प्रतिज्ञ, समाज की स्थिति से व्यथित होकर भारत के इस सिरे से उस सिरे तक भूख और प्यास की असह्य वेदना को वश में किये रात-दिन जिसने इतना भ्रमण किया हो, भारत में क्या कोई दूसरा व्यक्ति मिलेगा? F REE .... पर जैन समाज के किसी धनिक ने इस तपस्वी को इण्टर का भी टिकट लेकर नहीं दिया। वही धकापेलवाला थर्ड-क्लास, उसी में तीन-तीन वक्त 'सनातन जैन' (मासिक सामायिक, प्रतिक्रमण; उसी में जैनमित्रादि के लिए वर्ष१५ अंक ४; १९२८-१९५०), संपादकीय लेख, पत्रोत्तर, पठन-पाठन अविराम गति जो व्र. सीतलप्रसादजी के संपादन से चलता था। मार्ग में अष्टमी, चतुर्दशी आयी तो में आज से आधी सदी पूर्व प्रकाभी उपवास और पारणा के दिन निश्चित स्थान शित हुआ और जिसने सनातन पर न पहुँच सके तो भी उपवास और २-३ रोज जैन समाज के माध्यम से जैनों के उपवासी जब सन्ध्या को यथास्थान पहुँचे तो की अंधी परम्परा-भक्ति को पूर्व सूचना के अनुसार सभा का आयोजन, व्याख्यान, प्रथम चुनौती दी। तत्त्वचर्चा ! ... न जाने ब्रह्मचारीजी किस धातु के बने हुए थे कि थकान और भूखप्यास का आभास तक उनके चेहरे पर दिखायी न देता था। ब्रह्मचारीजी जैसा कष्टसहिष्णु और इरादे का मज़बूत लखनऊ-जैसे विलासी शहर में जन्म ले सकता है, मुझे तो कभी विश्वास न होता, यदि वे इस सत्य को स्वयं स्वीकृत न करते। भला जिस शहर वालों को बगैर छिला अंगूर खाने से कब्ज हो जाए, ककड़ी देखने से जिन्हें छींक आने लगे, तलवार-बन्दूक के नाम से जम्हाइयाँ आने लगें, उस शहर को ऐसा नरकेशरी उत्पन्न करने का सौभाग्य प्राप्त हो सकता है ? परन्तु धन्य है लखनऊ! मुझे तो लखनऊ में उत्पन्न होने वाले बन्धुओं-लाला बरारतीलाल, जिनेन्द्रचन्द्रजी आदि से ईर्ष्या होती है कि वे उस लखनऊ में उत्पन्न होने का सौभाग्य रखते हैं, जिसे ब्रह्मचारीजी की बालसुलभ अठखेलियाँ देखनी नसीब हुई और परिषद् के सभापति दानवीर सेठ शान्तिप्रसादजी ने जिसकी रज को मस्तक से लगाने में अपने को गौरवशाली समझा।, मुझे सन् १९२७-२८ के वे दुर्दिन भी याद हैं, जब चाणक्य को अँगूठा दिखाने वाले एक मायावी पण्डितजी के षड्यंत्रस्वरूप उन्होंने 'सनातन जैन समाज' की स्थापना कर दी थी। वे इसके परिणाम से परिचित थे। इसीलिए उन्होंने, उक्त तीर्थकर : नव. दिस. ७८ ६९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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