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पासस्स समवसरणे सहिया वरदत्त मुणिवरा पंच । रिस्सिंदे गिरिसिहरे निव्वाण गया णमो तेसिं ॥ १९ ॥
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इस गाथा का भैया भगवतीदास ने अनुवाद यों किया हैसमवसरण श्री पार्श्व जिनंद । रेसिदीगिरि नयनानन्द | वरदत्तादि पंच ऋषिराज । ते बन्दौ नित धरम जिहाज ॥
इनसे भी तीर्थ की अखिल भारतीय महत्ता का बोध होता है | नैनागिरि मध्ययुगीन रजपूती सत्ता से भी जुड़ा हुआ है। गहरवार, परिहार और चन्देलों से इसका संबन्ध रहा है । इतनी संख्या में जिनालयों का होना भी इसके कभी एक सुसमृद्ध महानगर होने का प्रमाण है । ठीक है, कला-दृष्टि से तीर्थ इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, किन्तु मध्यकाल की सहज-सादा वास्तुकला का तो यह एक प्रतिनिधि नमूना है। जिनालयों के दो गुच्छ हैं- पहाड़ पर, तलहटी में | रेशन्दीगिरि पर ३६ और तलहटी में एक परकोटे के भीतर १५ मन्दिर हैं । इस तरह यहाँ कुल ५१ मन्दिर और एक मानस्तम्भ है । तीर्थयात्री को, चाहे वह देश के किसी भी भाग से आया हो, वन्दना में एक विशिष्ट आनन्दानुभूति होती है, क्यों होती है ? इसकी कार्य-कारण व्याख्या असंभव है, किन्तु वह होती है, इसका प्रत्यक्षानुभव कभी भी किया जा सकता है। लगता है जैसे मुनियों - महामुनियों की अविचल साधना ने इस संपूर्ण क्षेत्र को कभी अभिभूत यानी चार्ज किया था अथवा हुआ था यह आपोआप । जल - मन्दिर की छटा अपनी अलग है, यह तलहटी में सरोवर से घिरा है और लगता है जैसे कोई महामुनि अपनी प्रशान्त अध्यात्म मुद्रा में जलासीन है ।
एक किंवदन्ती और है। कहा जाता है कि पर्वत स्थित जिनालयों के पीछे कभी एक महानगर बसा हुआ था । यहाँ श्मसान भूमि भी थी । महानगर के खण्डहर पुरातत्त्व - विशेषज्ञों को पलक - पाँवड़े बिछाये अनुक्षण न्योतते हैं, किन्तु कहीं-कोई चिन्तित नहीं है ? पर्वत से कोई एक मील दूर बियावाँ जंगल है, जहाँ ५२ गज लम्बी एक वेदिका है, जिसे ११वीं - १२वीं शताब्दी का माना जाता है । इस तरह सारा क्षेत्र पुरातात्त्विक, श्रमणसांस्कृतिक और मध्यकालीन लोकसांस्कृतिक वैभवों से भरा पड़ा है, किन्तु इस सब पर भगदड़ - वाली ज़िन्दगी में ध्यान कौन दे ? हमें विश्वास है कि यदि पुरातत्त्ववेत्ताओं ने इस ओर कोई ध्यान दिया तो कई जमींदोज रहस्य सामने आ सकेंगे ।
नैनागिरि को पन्ना नरेश का राजकीय संरक्षण मिला था । उनकी ओर से इसे बसाने और यहाँ सालाना जातरा लगाने की जो अनुमति मिली थी, उस पर वैशाख सुदी १५, सं. १९४२ अंकित है । इसकी बुन्देली भंगिमा और संरक्षण के मुद्दे दृष्टव्य हैं। अविकल सनद इस प्रकार है
तीर्थंकर : नव दिस. ७८
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