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________________ खण्ड' 'बन्देलखण्ड' बन गया और 'ऋष्यन्दगिरि' 'रेसन्दगिरि' और 'रेशिन्दीगिर' बना। जो हो आज इस तीर्थ के दो संबोधन प्रचलित है-नैनागिरि और रेशन्दीगिरि। प्रथम संबोधन लोगों को अधिक प्रिय है, अतः यही चलता है। इतिहास और लोककथन को अलगाकर देखना प्रायः दुष्कर होता है। लोककथन आधे इतिहास ही होते हैं। माना, उन पर सन्-संवती छापें धुंधली होती है, किन्तु अनुभूतिगत सचाई इतनी प्रगाढ़ होती है कि उसे नज़रअंदाज करना कठिन होता है। नैनागिरि को लेकर भी ऐसी ही स्थिति है। कहा जाता है, सच ही रहा होगा, कि यहाँ तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ का समवसरण आया था और इस समवसरण में मुनीन्द्रदत्त, इन्द्रदत्त, वरदत्त, गुणदत्त और सायरदत्त जैसे परम तपोधन भी थे, जिन्होंने यहाँ से निर्वाण प्राप्त किया। आवश्यक प्रमाण यद्यपि अप्राप्य हैं, तथापि माना जाता है कि क्षेत्र के निकट बहती नदी-धारा में ५० फीट ऊंची एक भव्य पाषाणशिला है, जहाँ ध्यानासीन होकर वरदत्तादि पाँच महामुनियों ने दुर्द्धर तपश्चर्या की थी। इसे आज सिद्धशिला कहा जाता है। सिद्धशिला का आकार-प्रकार, नाकोनक्श कुछ ऐसा अद्वितीय है कि सुबूत न होने पर भी कुछ भी अविश्वसनीय नहीं लगता है। काश, कोई प्रमाण मिल पाता !! पार्श्वनाथ का समवसरण कभी यहाँ आया था, इसकी अनुभूति आपोआप जहाँ-तहाँ झनझनाती है। लगता है, अनायास ही, कि कोई तपस्वी ध्यान में डूबा बैठा है और आध्यात्मिक साधना के लिए पुकार रहा है। मोक्षमार्ग के इन पथिकों की पदचापें आज भी सुन पाना कठिन नहीं है। सच ही वे क्षण अपूर्व रहे होंगे जब भगवान् पार्श्वनाथ का समवसरण यहाँ रहा होगा और पांच महामुनियों को मोक्ष ने उपलब्ध किया होगा। यहाँ का सबसे प्राचीन जिनालय पार्श्वनाथ मंदिर माना जाता है। यह १७ वीं सदी से अधिक प्राचीन नहीं है; किन्तु बाहर जो शिलालेख भित्ति में लगाया गया है उसमें ११०९ वि. सं. खुदा हुआ है। शिलालेख पुराना नहीं है तथापि प्रमाण है इस तथ्य का कि नैनागिरि का अस्तित्व हज़ार साल पहले था, और उसका व्यक्तित्व लगभग २६०० वर्ष प्राचीन है। मूल नायक भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा बड़ी सौम्य और विलक्षण है; मनोहारी और चुम्बकीय है। ना मालूम क्यों दर्शनार्थी आपोआप यहाँ नतमस्तक हो जाता है। इसे गौर से देखने पर लगता है कि किसी ग्रामशिल्पी ने स्थानीय पाषाण से स्थानीय शैली में ही इसे घड़ा है। भगवान् के शिरोभाग पर बनीं सर्पाकृतियाँ अद्भुत हैं; बिलकुल आसपास मिलने वाले साँपों-जैसी। 'लोकेल' का यह सुबूत यहाँ सघन जैन आबादी के होने का साक्षी है। इतना ही नहीं यह इस बात की गवाही भी है कि जैनों में अन्यान्य ग्रामवासियों की भी रुचि थी। नैनागिरि वस्तुतः एक भव्य मनोज्ञ तीर्थस्थान है-वैराग्य और निर्वेद की विजय-भूमि । निर्वाणकाण्ड की जिस गाथा में इसका उल्लेख है, वह इस प्रकार है आ. वि. सा. अंक .६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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