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________________ इसके अतिरिक्त एक और बात का उल्लेख करना चाहूँगा । मैंने अनुभव किया है कि वर्णीजी की जन्मस्थली बुन्देलखण्ड के बन्धु-बान्धव धार्मिक, अत्यन्त सरल सहज, निष्काम - नि:स्पृह हैं, अपने इस सरल स्वभाव से वे सहज ही अपनी ओर खींच लेते हैं । इधर बुन्देलखण्ड के मन्दिरों की भी एक विशेषता है । ये किसी राजाश्रय में नहीं बने हैं, श्रेष्ठिवर्ग भी यहाँ का बहुत उच्चश्रेणी का नहीं था, अतः ये यहाँ के परिवारों की श्रद्धा एवं आस्था के प्रतीक हैं। मुझे यहाँ जो स्नेह और सन्मान मिला है, वह मेरी बहुमूल्य निधि है । यहाँ के तीर्थों को भी घूम-घूम कर मैंने बड़े चाव से देखा है- विशेषतः खजुराहो, देवगढ़, अहार - जैसे स्थापत्य कला के भाण्डार तीर्थों को । ये सब वास्तव में हमारी संस्कृति के ज्वलन्त - जीवन्त प्रतीक हैं। मध्यप्रदेश जैन पुरातत्त्व की दृष्टि से अतीव समृद्ध है । यह कई भूखण्डों की शिल्पकृतियों का प्रदेश है । मेरी इस तीर्थयात्रा में श्री नीरज जैसे कला-पारखी मेरे साथ रहे हैं । उनके साथ होने से कलाकृतियों की अन्तरात्मा में सेंध लगाने, उन्हें समझने में काफी सुविधा हुई है । श्री नीरज जैन केवल सतना जिले के ही नहीं, वरन् सारे भारत के पुरातत्त्व में अपना एक प्रमुख स्थान रखते हैं । वे पुरातत्त्वशास्त्र में पारंगत हैं, इसमें उनकी रुचि भी है । इस दृष्टि से वे एक अच्छे साथी और मार्गदर्शक भी हैं । मेरा एक विचार और भी है । मैं समझता हूँ जिस तरह जिनवाणी का प्रचार-प्रसार आवश्यक है, उसी तरह इन कलाकृतियों की, जो हमें बहुमूल्य बिरासत के रूप में मिली हैं, सुरक्षा भी आवश्यक है। इसे हमें अपना धार्मिक या सामाजिक कर्तव्य मानकर करना चाहिये । मेरी विनम्र समझ में इनकी ओर ध्यान देना या खींचना बहुत जरूरी है; क्योंकि कला जब धर्म के साथ जुड़ती है तब उसे सरल, सहज और सुगम बना देती है । मैं मानता हूँ कि यदि आज हमने कला को उचित संरक्षण देने की पहल नहीं की तो आनेवाली पीढ़ी हमें कदापि क्षमा नहीं करेगी। मेरे लेखे जितनी उपयोगी जिनवाणी है, उतनी ही उपयोगी ये कलाकृतियाँ हैं । इनका आध्यात्मिक संप्रेषण उतना ही सक्षम और प्रभावी है । आज मात्र बुन्देलखण्ड में ही नहीं अपितु भारत में यत्र-तत्र एक बड़ी संख्या में मूर्तियाँ जिस असावधानी और अरक्षा में बिखरी हुई हैं, वह कोई मंगलकारी स्थिति नहीं है । मैं चाहता हूँ इनके संरक्षण की ओर लोगों का ध्यान जाए। इस दृष्टि से यदि 'तीर्थंकर' किसी स्वतन्त्र विशेषांक का आयोजन करे और समाज को इसकी व्यापक जानकारी दे, इस ओर उसका ध्यान आकर्षित करे, तो यह एक बड़ा काम होगा । इस काम को हम सब मिल कर ही कर सकेंगे, करेंगे । ६२ Jain Education International For Personal & Private Use Only आ. वि. सा. अंक www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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