SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बुन्देलखण्ड-यात्रा को दो बड़ी उपलब्धियाँ 'पहली उपलब्धि है सिद्ध/अतिशय क्षेत्र कुण्डलपुर-स्थित भगवान आदिनाथ की भव्य, विशाल, ऐतिहासिक प्रतिमा के पुण्य-पुनीत दर्शन; और दूसरी है आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज का सहज सान्निध्य, तर्क से अ-तर्क की ओर ले जाने का उनका उदात्त दृष्टिकोण । - श्रेयान्सप्रसाद जैन गत मास, मैंने बुन्देलखण्ड के तीर्थों की भाग्यशालिनी यात्रा संपन्न की। यहाँ गाँव-गाँव में प्राचीन स्थापत्य-कला के नमूने देखने को मिले । यात्रा मनोरम, सुखद और अविस्मरणीय रही। वस्तुतः मेरी इस यात्रा की दो बड़ी उपलब्,ियाँ हैं। जहाँ तक पहली उपलब्धि का संबन्ध है, वह है कुण्डलपुर में भगवान् आदिनाथ की वीतराग प्रतिमा के पुण्य-पुनीत दर्शन । कुण्डलपुर सिद्ध/अतिशय क्षेत्र तो है ही, इसके संबन्ध में नाना किंवदन्तियाँ भी प्रचलित हैं, जिन पर कोई भरोसा करे, न करे; किन्तु साधारण जन की आस्था इनमें से प्रकट अवश्य होती है। भगवान् की यह सुविशाल प्रतिमा अत्यधिक भव्य, मनोरम, प्रेरक और ऐतिहासिक है। इसके दर्शन से हृदय में एक अद्वितीय आह्लाद उत्पन्न होता है और चित्त को परम शान्ति मिलती है; मन विभोरता में झूम उठता है। वास्तव में इस प्रतिमा के माध्यम से भगवान् आदिनाथ के प्रति मस्तक बरबस झुक जाता है, और हृदय एक अप्रत्याशित आध्यात्मिक उल्लास से भर उठता है। क्षेत्र का व्यक्तित्व प्राकृतिक शोभा-सुषमा से ओतप्रोत है, सुन्दरता का खजाना है। पहाड़ों पर मन्दिरों की श्रृंखला, नीचे सरोवर तथा प्राकृतिक छटा से परिवेष्टित यह क्षेत्र स्वयं में एक रमणीक-दर्शनीय स्थल है। मैं समझता हूँ यदि किसी ने इस तीर्थ की वन्दना नहीं की है, तो उसे एक बार अवश्य यह पुण्यार्जन कर लेना चाहिये। . _ मेरी दूसरी शपलब्धि है तरुण जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज का सान्निध्य ; एक ऐसे आचार्य से साक्षात्कार जो युवा हैं, जिनके मुख-मण्डल की मुस्कराहट, और प्रवचन करने का ढंग सहसा चुम्बक-सा खींच लेता है मनःप्राण । वे अपनी सरल, मुदु, सहज वाणी से शंकाओं का समाधान करते हैं; वस्तुतः तर्क से अ-तर्क में ले जाने का उनका दृष्टिकोण उत्कृष्ट है। तर्क को वे व्यर्थ का अवकाश नहीं देते, मात्र उतना हाशिया देते हैं जहाँ तक वह तत्त्वदर्शन में उपकारक होता है, उसके प्रति उनका आग्रह नहीं होता। शुद्ध, विशाल, व्यापक दृष्टि-संपन्न ये आध्यात्मिक साधु बरबस अपनी ओर खींच लेते हैं। इनके दर्शन से, वस्तुतः, मैं बहुत ही कृतकृत्य हुआ हूँ। तीर्थंकर : नव. दिस. ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy