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द्वारा समर्पित एक धरोहर के रूप में स्वीकृत करता है और उनकी रक्षा तथा विकास में श्रद्धापूर्वक प्रवास करता है। प्रसन्नता की बात है कि आज प्रायः प्रत्येक क्षेत्र पूर्व की अपेक्षा अधिक विकसित है। उनके यातायात के मार्ग व्यवस्थित किये गये हैं, तथा वहाँ धर्मशाला आदि की समुचित व्यवस्था हुई है। मंदिरों का भी जीर्णोद्धार हुआ है । बड़वानी, ऊन, सिद्धवरकूट, सोनागिरि, पद्मपुरी तथा महावीरजी आदि का नवनिर्माण देखकर यात्री का मन प्रसन्न हो जाता है; परन्तु अपवादस्वरूप कई स्थलों पर प्राचीन धरोहर आज भी उपेक्षित पड़ी हुई है, और कहीं-कहीं तो वहाँ के लोगों अथवा व्यवस्थापकों के व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण भी बन गये हैं।
आज तीर्थयात्रा करना मानव के जीवन का महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य माना जाने लगा है। तीर्थस्थलों में जन-मानस सब चिन्ताओं से मुक्त, भाव-विभोर होकर भक्ति में लीन हो जाता है। जितने समय तक वह वहाँ रहता है, एक विशेष शान्ति-सुख का अनुभव करता है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष प्रायः प्रत्येक प्रान्त से बसों अथवा ट्रेनों द्वारा अनेक यात्रा-संघ निकलते हैं। दीपावली से लेकर फाल्गुन तक के बीच तीर्थयात्राओं के संघ अधिक संख्या में निकलते हैं। सम्मेदाचल की यात्रा के लिए निकलनेवाले यात्रा-संघों का उल्लेख तो बहुत प्राचीन काल से मिलता है। भगवान् पार्श्वनाथ के पूर्वभव वर्णन में आता है कि राजा अरविन्द, जो दिगम्बर दीक्षा धारण कर मुनिराज हो गये थे, वे सम्मेदाचल की यात्रा के लिए जानेवाले संघ के साथ गये थे। मरुभूति का जीव, जो मरकर हाथी हुआ था, यात्रासंघ में उत्पात करता हुआ, ज्यों ही अरविन्द मुनिराज को देखता है, त्यों ही शान्त हो जाता है। मरुभूति, भगवान् पार्श्वनाथ का जीव था। मरुभूति के बाद अनेक भव धारण कर चुकने पर वह भगवान् पार्श्वनाथ बना था।
____ मैं भारतवर्ष के प्रायः सभी प्रमुख क्षेत्रों के दर्शन कर चुका हूँ। सब जगह सुन्दर और समयोचित व्यवस्था देखने को मिली; परन्तु शक्ति-सम्पन्न प्रमुख क्षेत्रों पर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के साधन भी यदि जुटाये जा सकें, तो वह जैनधर्म के प्रचार के लिए अत्यन्त सहायक होंगे। बड़े क्षेत्रों पर एक अच्छा विद्वान् भी नियुक्त रहना चाहिये, जो आगम-श्रद्धालु जनता के तत्त्वज्ञान का प्रचार करता रहे। जहाँ संभव हो वहाँ धार्मिक पाठशालाओं की व्यवस्था भी होनी चाहिये।
वीतरागता : केवल ज्ञानगम्य "वीतरागता एक ऐसी रसायन है, जो वैज्ञानिकों की खोज-परिधि में आती नहीं। यह तो केवल ज्ञानगम्य है और आत्मा को संपूर्ण शुद्ध बनाने वाला सर्वोत्तम साधन है। इसी वीतरागता को प्राप्त करने का सभी को सतत् प्रयास करना चाहिये। जितनी भी आत्माएँ आज तक सिद्धत्व को प्राप्त हुई हैं और जितनी भी आत्माएँ भविष्य में सिद्ध परमेष्ठी बनेंगी, वे केवल वीतरागता के द्वारा ही। अन्य कोई साधन इस दिव्य कार्य को निष्पन्न करने वाला नहीं है।"
-आचार्य विद्यासागर
आ. वि. सा. अंक
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