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तीर्थ यात्रा
जहाँ से तीर्थंकर, अथवा किन्हीं अन्य मुनिराजों का निर्वाण होता है उसे सिद्धक्षेत्र कहते हैं; तथा जहाँ तीर्थंकरों के शेष कल्याणक होते हैं, अथवा कोई विशिष्ट चमत्कार होता है, उन्हें अतिशयक्षेत्र कहते हैं।
- डॉ. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य
तरन्ति भव्या येन भवसागरं तत् तीर्थम् इस व्युत्पत्ति के अनुसार तीर्थ वह है, जो भव्य जीवों को संसार-सागर से पार होने में सहायक हो। यद्यपि संसार से समुत्तीर्ण होने का साक्षात् मार्ग रत्नत्रय की पूर्णता है, तथापि उस रत्नत्रय की पूर्णता के लिए तीर्थ भी निमित्त के रूप में स्वीकृत किया गया है। भावशुद्धि के लिए बाह्य द्रव्य, क्षेत्र, काल का भी सहयोग सर्वमान्य है।
सिद्धक्षेत्र और अतिशयक्षेत्र के भेद से वर्तमान क्षेत्र दो रूपों में प्रसिद्ध हैं। जहाँ से तीर्थंकर अथवा किन्हीं अन्य मुनिराजों का निर्वाण होता है, उसे सिद्धक्षेत्र कहते हैं, तथा जहाँ तीर्थंकरों के शेष कल्याणक होते हैं, अथवा कोई विशिष्ट चमत्कार होता है, उन्हें अतिशयक्षेत्र कहते हैं। संहरण सिद्धों की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप का प्रत्येक प्रदेश सिद्धक्षेत्र हैं और जन्म की अपेक्षा यत्र-तत्र सिद्धक्षेत्र हैं। सामान्य नियम के अनुसार भरतक्षेत्र-संबन्धी तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या नगरी में होता है, और निर्वाण सम्मेद-शिखर से होता है, अतः ये दो स्थान सनातन तीर्थक्षेत्र हैं। प्रलय के समय जब समस्त आर्यखण्ड अस्त-व्यस्त हो जाता है, तब इन दोनों स्थानों के नीचे स्थिर स्वस्तिक-चिह्न के आधार पर देव लोग पुनः इनकी स्थापना कर देते हैं। यह हुण्डावसर्पिणी काल का प्रभाव माना गया है कि वर्तमान चौबीसी में कुछ तीर्थंकरों का अयोध्या को छोड़कर अन्य नगरियों में जन्म हुआ है और सम्मेद-शिखर को छोड़कर अन्य स्थानों से निर्वाण हुआ है।
निर्वाण-भक्ति या निर्वाणकाण्ड में भारतवर्ष के जिन सिद्धक्षेत्रों का समुल्लेख है, उनमें से अभी तक कोटिशिला आदि कतिपय सिद्धक्षेत्रों का निर्णय नहीं हो सका है। इसी प्रकार निर्वाणकाण्ड के अन्त में जिन अतिशयक्षेत्रों का नामोल्लेख हुआ है, उनमें भी पोदनपुर आदि स्थानों का निर्धार नहीं किया जा सका है।
आजकल अतिशयक्षेत्रों की संख्या बढ़ रही है। कहीं किसी व्यन्तर आदि के द्वारा किया हुआ साधारण चमत्कार सुनने में आया नहीं कि उसे अतिशयक्षेत्र की संज्ञा मिल जाती है। कुछ भी हो, जन-मानस तीर्थक्षेत्रों को अपने पूर्वजों के
तीर्थकर : नव. दिस. ७८
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