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बोधकथा
सद्गुरु की पहचान
भक्त दादू नगर के बाहर रहते थे। भक्ति से भरे गीत गाते, और कोई आ जाता तो भक्ति का उपदेश देते। स्थान-स्थान पर उनकी प्रसिद्धि होने लगी; शहर में भी पहुंची। शहर के कोतवाल भक्ति में रुचि रखते थे। घोड़े पर बैठे और शहर से चल पड़े यह सोच कि दादू महाराज के दर्शन कर आयें, उनसे भक्ति का अमृत ले आयें; किन्तु भक्ति में रुचि रखते हुए भी थे तो वे कोतवाल ही। शहर से बाहर जंगल में पहुँचे। दूर तक चले गये। कहीं कोई दिखायी न दिया। तभी एक व्यक्ति पर नज़र पड़ी। वह मार्ग में लगी काँटेदार झाड़ियों को काटकर सड़क साफ कर रहा था। कोतवाल ने रौब में पूछा-'ए! तू जानता है कि महात्मा दादू कहाँ रहते हैं ?'
वह व्यक्ति कार्य में मस्त था, पूरी तरह डूबा हुआ, बोला नहीं। कोतवाल क्रुद्ध हो गये। गाली देते हुए बोले-'मैं तेरे बाप का नौकर नहीं हूँ शहर का कोतवाल हूँ। जल्दी बोल।'
उस व्यक्ति ने अब की बार सुना, आश्चर्य से कोतवाल की ओर देखा, धीरेसे मुस्करा दिया। कोतवाल ने समझा कि यह व्यक्ति ठट्ठा कर रहा है; अतः जिस चाबुक से घोड़े को चला रहे थे, उसी से उस व्यक्ति को उन्होंने पीट डाला। व्यक्ति चाबुक खाता रहा, मुस्कराता रहा। कोतवाल ने उसे जोर से धक्का दिया। वह पत्थर पर गिर पड़ा। उसके सिर से रक्त बहने लगा। कोतवाल जल्दी में थे। उसे वैसे ही छोड़ आगे चल दिये। कुछ फासले पर एक और व्यक्ति दूसरी ओर जाता हुआ मिला। उससे बोले-'दादू महाराज कहाँ मिलेंगे? तू जानता है उन्हें ?'
उस व्यक्ति ने कहा-'दादू महाराज तो इसी मार्ग में थे। अभी कुछ देर पहले मैं उन्हें देखकर आया हूँ। वे मार्ग में उगी काँटेदार झाड़ियों को काट रहे थे। क्या आपने उन्हें नहीं देखा ?'
कोतवाल ने आश्चर्य से कहा-'वे दादू थे ?' पथिक ने कहा-'हाँ।'
कोतवाल घोड़ा मोड़. दौड़ाते हुए वापस आये। देखा, दादू महाराज ने अपने सिर पर पट्टी बाँध ली है और वैसे ही झाड़ियाँ काट रहे हैं। कोतवाल शीघ्रता के साथ घोड़े से उतरे और दादू के चरणों में गिर पड़े। रोते हुए बोले-'क्षमा करें महात्मन् ! मैं तो आप ही को खोजता फिरता था। मेरी बुद्धि पर पर्दा पड़ गया,
(शेष पृष्ठ ७८ पर)
आ. वि. सा. अंक
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