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________________ आयोजना पूर्वयोजित होती है, तत्काल हम कुछ संयोजित नहीं कर पाते । आसन्न हमारे हाथ में नहीं है, सुदूरवर्ती पर हमारा काबू है। जीवनजी बड़े स्वाध्यायी व्यक्ति हैं, कम बोलते हैं, किन्तु यथासमय और अचूक बोलते हैं। श्रीमती आशा मलैया अधिक बोलती हैं, और अच्छा बोलती हैं; सार कहाँ होता है, इसे प्रायः ढंढ़ना पड़ता है; उनका एक-एक शब्द भीतर कहीं खुला और गूढ़ होता है। वे प्रतिभाशाली हैं। उनसे समाज को अर्थात् मानव-समाज को काफी आशा-अपेक्षा रखनी चाहिये। इधर भाई संतोष पूरे संतोषी प्राणी हैं। कम उम्र में साधना और तप की ओर उनका ध्यान है। परिपक्वता ऐसी और इतनी है कि सत्तर वर्ष के बढ़े में भी चिराग लेकर डूंढ़ने पर शायद ही हासिल हो; किन्तु हर काम में विनम्र सहयोग, हर स्थिति में सहकार्य । मेरा अपना कुछ नहीं है। मैं ठहरा अतिथि । जीप में धानी खायी। पेड़े खाये। आशाजी, जीवनजी और संतोषजी ने असहयोग किया; किन्तु भाई सुरेशजी ने साथ दिया। कुल मिलाकर यात्रा सुखद और उपलब्धिपूर्ण रही। हाँ, जहाँ एक ओर आचार्यश्री अपनी सिद्धशिला-मद्रा में आँखों के सामने हैं, वहीं दूसरी ओर क्षेत्र की अस्वच्छता ने सर भन्ना दिया है। बुन्देलखण्ड के प्रायः सारे तीर्थ भव्य-मनोज्ञ हैं, किन्तु वहाँ सफाई पर व्यवस्थापकों का अक्सर ध्यान नहीं जा पाता। प्रतिमाएँ भव्य हैं, वीतरागता में जीवन्त हैं, किन्तु मंदिर के आँगन उतने साफ नहीं हैं। शौचालय हैं, किन्तु अशुचिताओं की कमी नहीं है, जलाभाव के कारण, अथवा व्यवस्थाओं के कसावरहित होने के कारण चारों ओर बदबू छायी रहती है। भाई श्री सतीशचन्दजी ने वर्षों यहाँ काम किया है, सारा क्षेत्र ही उनकी अविरत साधना का परिणाम है। उन्होंने यहाँ निर्जन रातें और सन्नाटे-भरे दिन बिताये हैं, और इसे सब्ज करने में कई दशाब्दियाँ लगायी हैं। समाज को श्री जैन के प्रति असीम कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिये । आज भी वे इसके सर्वांगीण विकास में रुचि लेते हैं, और प्रयत्न करते रहते हैं कि यह तीर्थ भारत का एक प्रमुख तीर्थ बने । क्या हम उनसे यह आशा-अपेक्षा नहीं रख सकते कि वे धर्मशाला को एक साफ-सुथरा स्थान बनायेंगे, एक ऐसा सुखद स्थान जिसके चारों ओर उद्यान हो, और गांधीवादी ढंग के शौचालय हों, तथा एक सम्पन्न स्वाध्याय-कक्ष हो ? माना कि आचार्यश्री निर्ग्रन्थ हैं, किन्तु यहाँ उनके वर्षायोग की स्मृति में कोई आश्रम या धर्मशाला बनायी जाए इसकी अपेक्षा तो यही अधिक श्रेयस्कर होगा कि सारे बुन्देलखण्ड का एक 'केन्द्रीय जैनविद्या शोध-ग्रन्थालय' यहाँ स्थापित किया जाए, जो आगे चल कर न केवल मध्यप्रदेश का वरन् सारे उत्तर भारत का एक विशिष्ट अनुसंधान केन्द्र बने, जहाँ केवल दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ ही संगृहीत न हों वरन् देश-विदेश से पाण्डुलिपियों की माइक्रोफिल्में प्राप्त की जाएं और विशेषज्ञों तथा सामान्यों दोनों के लाभार्थ उसे समृद्ध किया जाए। यह योजना कोई छोटी-मोटी योजना न हो वरन् एक सु-विशाल योजना हो जिस पर कमसे-कम एक करोड़ रुपये खर्च किए जाएं। इससे सिद्धिशिला का महत्त्व बढ़ जाएगा और वह सिद्धिशाला का रूप ग्रहण कर लेगी। इस काम को बुन्देलखण्डवासियों को तो करना ही है, किन्तु इसे सारे देश के जैनों को एक हृदय होकर भी करना चाहिये । तीथंकर : नव. दिस. ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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