________________
कभी स्थगित नहीं करते, उन्हें दुलारते हैं, और यथाशक्ति असीसते हैं। वे उनके प्रति हमदर्दी से ओतप्रोत हैं। वे प्रायः महसूसते हैं कि बच्चों का जगत् बिलकुल अलग है। वह बड़ों की दुनिया से जुदा है। बच्चे प्रायः भविष्य में होते हैं; अधेड़, या वृद्ध अतीत में। वे हँसते-मुस्कारते, कूदते-फुदकते रहते हैं, और बड़े कूल्हते-कराहते, लड़ते-झगड़ते चलते हैं; एक अस्तित्व आशाओं की फुलवाड़ी होता है, दूसरा सुखों के वियोग में छटपटाता क़ब्रस्तान। आचार्यश्री ने कहा-'बात यह है कि नरक का वर्णन हँस कर तो हो नहीं सकता। वह एक तरह का दुःख है। यहाँ छोटे दुःख हैं, वहाँ बड़े; दुःख की अनुभूति हँसकर भला कैसे संभव है ? उसे झेला हँसकर जा सकता है, किन्तु अनुभव तो उसमें से गुजरकर ही होगा, इसलिए सहानुभूति में से ही अनुभूति को कोई आकार मिल सकता है।' मुमुक्षुओं को मुक्ति की परिकल्पना कोई महामुनि ही दे सकता है। श्रावक बहस कर सकता है, परिकल्पना नहीं दे सकता। कोई गुलाम स्वाधीनता की अनुभूति कैसे करा सकता है ? उसके लिए आज़ादी भी एक किस्म की गुलामी ही होगी। इसलिए महाराज जब मोक्षचर्चा करते हैं तब उनके मुखमण्डल पर उल्लास होता है, एक सजल मेघघटा छायी होती है - तब लगता है अध्यात्म में निमग्न कोई भेदविज्ञानी पृथक्करण की प्रयोगशाला में प्रयोगरत है।
इसी दरम्यान दिव्यध्वनि की बात चली। दिव्यध्वनि क्या है ? क्या वह अक्षरात्मक है ? समवसरण में सब उसे कैसे समझते होंगे ? बात में से बात अँकुराती गयी। आचार्यश्री ने कहा – 'दिव्यध्वनि तो विद्युत्प्रवाह है। वह बहता है अविरल ; कोई सक्षम ग्राहक यंत्र होता है, तो उसे झेल लेता है अन्यथा प्रवाह तो वीतराग है, वह अपनी अक्षुण्ण्ता में बहता रहता है। गणधर परमेष्ठी में उसे झेलने की क्षमता होती है। जैसे बल्ब पर निर्भर करता है कि वह कितने वाट का है ? जीरो वाट का बल्ब जीरो जितनी रोशनी देगा, साठ का साठ जितनी, १०० का उसके अपने अनुपात में। गणधर परमेष्ठी के माध्यम से दिव्यध्वनि ट्रांसफॉर्म होकर यथायोग्य बनती जाती है। वह अक्षरात्मक नहीं होती। अक्षरात्मक भाषा की अपनी सीमाएँ होती हैं, किन्तु ज्ञान मात्र अक्षरात्मक नहीं होता, उसके और-और आकार भी हैं। गणधरादि की प्रतीक्षा इसलिए होती है, कि सारे लोग दिव्यध्वनि को झेल नहीं सकते। जैसे रेडियो सेट ही प्रसारित तरंगों को ग्रहण कर पाता है अन्य कोई यंत्र नहीं, ठीक वैसे ही दिव्यध्वनि के बारे में है।' सभी संदर्भो में जुदा-जुदा योग्यताओं, विशिष्टताओं, दक्षताओं इत्यादि का प्रश्न उठेगा। इसी तरह चर्चा लंबाती गयी, और एक तथ्य में से दूसरा तथ्य परिपुष्ट होता गया।
कुछ ही देर बाद बारह बजने को हुए। सूरज सिर की सीध में आने लगा। आचार्यश्री ध्यानमुद्रा में घनीभूत होने लगे और हम लोग अपनी-अपनी प्रणामाञ्जलियाँ अर्पित करते हुए लौटने लगे। रास्ते-भर हम सब अपना-अपना भाग्य सराहते रहे । कहाँ सर्वथा निराश हुए थे, और कहाँ निर्धन का धन राम ही हमें मिल गया। इससे लगा कि प्रायः संपूर्ण
आ. वि. सा. अंक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org