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बालक विद्याधर - मैं सोचता रहा - ऐसा नहीं लगता कि इस बालक में कहींकोई आचार्य अलथी-पलथी में बैठा है। गोल चेहरा। झब्बर केश। तंग निकर । अंग्रेजी काट की कमीज़ । कन्धों के आरपार डला बस्ता। पाँव में जूते, किन्तु क़दम में दृढ़ता और गांभीर्य (पृ. ५०) और इधर आध्यात्मिक मस्ती में छकाछकखड़-खड़ काया, ऐसी जैसे आग में विदग्ध स्वर्ण। अभय की जीवन्त प्रतिमा। रोम-रोम में आज भी जहाँ-तहाँ विद्याधर, वैसा ही भोलापन, वैसा ही निरीह-निष्काम भाव । सात सुरों के लयपुरुष, संगीत में गहरी रुचि, कवि, भाषाविद्, दुर्द्धर साधक, तेजोमय तपस्वी। बोलने में मंत्रमुग्धता, आचरण में स्पष्टता, कहीं-कोई प्रचार-कामना नहीं; सर्वत्र शान्ति, सुख, स्वाध्याय (पृ. ५१)।
वस्तुतः एक महान् मनीषी और तेजस्वी तपोधन से मिलने का सुख ही कुछ और होता है; बिलकुल अपनी तरह का अनोखा, अकेला। सो, जब हम नैनागिरि पहुँचे और जिनालयों के दर्शनोपरान्त हमने वहाँ की स्थिति को देखा तब लगा कि आचार्यश्री के दर्शन नहीं होंगे और हमें खाली हाथ लौटना होगा। संघवर्ती व्यक्तियों ने बताया कि आचार्यश्री सिद्धशिला की ओर अभी-अभी गये हैं और लगभग साँझ तक प्रतिक्रमण में रहेंगे। सूरज उधर लौटेगा और वे इधर। कल वर्षायोग विसर्जित होगा। यह सब उसी की भूमिका है। आज वे किसी से मिलेंगे नहीं। किन्तु हम लोग निराश नहीं हुए। भीतर-भीतर किसी दृढ़ निश्चय ने करवट ली और हम सब सिद्धशिला की ओर चल दिये। ____ कुछ ही दूरी तय की होगी कि सूना कोई स्वर पक्षियों के साथ आत्मविभोर है। आचार्यश्री सिद्धशिला पर एकाकी आसीन कोई गाथा गुनगुना रहे थे। अच्छा लगा यह देख कि वे पक्षियों की भाँति स्वच्छन्द, निर्मल, स्वाधीन, स्वाभाविक ; नदी की तरह गतिमान, जल की तरह करुणार्द्र, चट्टान की भाँति अविचल हैं। सिद्धशिला पर पहुँच हम सबने उन्हें तीन ओर से घेर लिया। चर्चा आरम्भ हुई (पृष्ठ ३८-४७) । भेदविज्ञान से लेकर दिव्यध्वनि तक, तरुणों से लेकर शिशुओं तक । आनंद और अमृत बरस-बरस पड़े। धूप तेज थी, पर महसूस नहीं हुई; डगर कंटकाकीर्ण थी, किन्तु चुभन का अहसास नहीं हुआ। ____ आचार्यश्री चर्चा करते जाते और भीतर गहरे उतरते जाते। हैं वे तरुण; किन्तु शैशव उनका साथ कभी नहीं छोड़ता। शैशव उनकी अनिवार्यता है, वह उन्हें कभी वृद्ध नहीं होने देता, सदा हरा-भरा रखता है। हम यह सब सोच ही रहे थे कि श्रीमती आशा मलैया ने सहज ही पूछा कि “मेरी पुत्री पूछती है नरक क्या है और मैं उसे कोई सटीक उत्तर नहीं दे पा रही हूँ। जब उस तर्कमती से हार गयी तब मैंने उससे कहा-'महाराज से पूछ लेना। इस पर उसने तपाक से कहा'क्या महाराज नरक गये थे?' अब आप ही बतायें उस आभा को आभा कहाँ से दूं?" महाराज बच्चों के व्यक्तित्व का सम्मान करते हैं। वे उनकी जिज्ञासाओं को
तीर्थंकर : नव. दिस. ७८
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