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हैं, हवाएँ मंद-मंद बहती हैं, और एक आध्यात्मिक गूंज नामालूम कहाँ से आकर वातावरण को झनझनाये रहती है।
जब हम नैनागिरि पहुँचे तब सूरज ठीक सर पर आने को था। उसकी यात्रा अविराम थी। नैनागिरि के सरोवर में एक मंदिर है, जिसे 'जलमंदिर' कहा जाता है। इसी से सटी एक सड़क है, जो रेशिदीगिरि जाती है, जहाँ मूल नायक भगवान् पार्श्वनाथ की विशुद्ध लोककला की प्रतीक प्रतिमा प्रतिष्ठित है। प्रतिमा अधिक पुरानी नहीं है, किन्तु सर्पाकृतियों में वहाँ की आंचलिकता प्रतिबिम्बित है। आचार्यश्री विद्यासागरजी यहीं बिराजमान हैं, इसलिए (महज इसीलिए) यह एक दोहरा तीर्थ बन गया है। आचार्यश्री के दर्शन बीना (बारहा) में हुए थे और तब उन्हें देख कबीर की यह पंक्ति याद आयी थी-देख वोजूद में अजब बिसराम है, होय मौजूद तो सही पावै (अपनी सत्ता में तो झाँक, वहीं परम-अद्वितीय विश्राम संभव है, किन्तु यह सब तेरी अप्रमत्त उपस्थिति पर ही संभव है, तभी तुझे सम्यक्त्व मिल सकता है)। वैसे ही जब उन्हें और निकट से देखा तो लगा-साध संग्राम है रैनदिन देह परजन्त का काम भाई (साधु का संग्राम दिन-रात स्वयं-में-स्वयं से जूझने में है, उसका यह काम देह जबतक है तबतक अविराम चलता है)। क़बीर की इस पंक्ति पर विद्यासागरजी के संदर्भ में कोई भी हस्ताक्षर कर सकता है। यह तो हुआ बीना (बारहा) का अनुभव, जो गजरथ की धूमधाम के बीच मुझे हुआ था। ___इधर जब हम लोग जीप में नैनागिरि की ओर तेजी से चले आ रहे थे, तब साथियों ने आचार्यश्री के संबन्ध में कई-कई घटनाएँ सुनायीं। एक ने कहा-'नैनागिरि का इलाका डाकुओं और खूखार डकैतियों का इलाका है, किन्तु डाकुओं ने संकल्प किया है कि वर्षायोग में आचार्यश्री जबतक यहाँ हैं, यह क्षेत्र निरापद
और आतंक-मुक्त रहेगा। आश्चर्यजनक यह है कि इन सबने यहाँ आचार्यश्री की वन्दना की है और उनके उपदेशामृत से कृतकृत्य हुए हैं।' एक ने कहा-'शिकार की दृष्टि से भी यह क्षेत्र बहुत रिच (समृद्ध) माना जाता है, किन्तु शिकारियों ने भी यह निश्चय किया है कि जबतक आचार्यश्री यहाँ हैं, एक भी प्राणी की हिंसा नहीं होगी। इस तरह यह बियावान निर्जन क्षेत्र बिलकुल निरापद और निष्कण्टक बना हुआ है।' एक ने सहज ही कहा-'अभी कुछ दिन हुए शरद्पूर्णिमा को आचार्यश्री ने ३३ वें वर्ष में प्रवेश किया है। वे तरुण हैं, तरुणों में तरुण हैं। खुलकर हँसते हैं। उनकी निर्ग्रन्थ हँसी से मन की सारी ग्रन्थियाँ खुल जाती हैं। वे हरफन हैं, खूब गाते हैं, और अभीत घूमते हैं। न वे किसी से डरते हैं, न कोई उनसे डरता है। वे निर्भय हैं, निष्काम हैं, निर्द्वन्द्व हैं। महामनीषी हैं।' एक ने बताया – 'वे मैसूर के सदलगा गाँव में जनमे हैं। उनकी माँ का नाम श्रीमती और पिताजी का नाम मालप्पा है। अब दोनों दीक्षित हैं, और प्रखर साधनारत हैं। उनका सारा कुनबा मुनिधर्म अंगीकार करने की राह पर पाँव डाल चुका है। बचपन के विद्याधर आज विद्या के अतल-अथाह सागर हैं।'
आ. वि. सा. अंक
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