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एक तीर्थयात्रा, जिसे भूल पाना असम्भव है
बालक विद्याधर को देख - मैं सोचता रहा- ऐसा नहीं लगता कि इस बालक में कहीं-कोई आचार्य अलथी-पलथी में बैठा है। गोल चेहरा। झब्बर केश। तंग निकर। अंग्रेजी काट की कमीज । कन्धों के आरपार डला बस्ता । पाँव में जूते, किन्तु हर क़दम में दृढ़ता और गंभीरता। "और इधर आध्यात्मिक मस्ती मे छकाछक खड़खड़ काया, ऐसी जैसे आग में विदग्ध स्वर्ण। अभय की जीवन्त प्रतिमा। रोम-रोम में आज भी जहाँ-तहाँ विद्याधर, वैसा ही भोलापन, वैसी ही निरीह, निष्काम मुद्रा। सात सुरों के लय-पुरुष, संगीत में गहरी रुचि, कवि, भाषाविद्, दुर्द्धर साधक, तेजोमय तपस्वी। बोलने में मंत्रमुग्धता, आचरण में स्पष्टता, कहीं-कोई प्रचार-कामना नहीं; सर्वत्र सुख, शान्ति स्वाध्याय ।
नेमीचन्द जैन
३० अक्टूबर १९७८ । सोमवार। बड़ी फज़र। रोजमर्रा की चर्या से फ़ारिश हुआ ही था कि भाई दिनेश ने कहा-'जो जीप रात तय की थी, वह नहीं जाएगी। बस से चलना होगा।' मैंने कहा-'इसमें वक्त बहुत जाया होगा, जीप तो किसी तरह करनी ही होगी।' मेरी बात मान ली गयी और भाई संतोषकुमार ने जीप का इंतजाम कर दिया। कुछ अड़चनें आयीं, किन्तु काँटों की नोकें खुदब-खुद टूटती गयीं और हम लोग सागर से कोई ४८ किलोमीटर दूर श्री नैनागिरि तीर्थ के लिए रवाना हुए। हम कुल दस थे। सबेरे यही कोई ८ बजे चले और ९।। बजे पहुँचे। यों तो समूची विन्ध्यश्रेणी ही प्रणम्य है, किन्तु कुण्डलाकार कुण्डलगिरि, स्वर्णाभ सोनागिरि, और भीतर की आँख उघाड़नेवाला नैनागिरि विशेषतः प्रणम्य हैं। इनकी नैसर्गिक शोभाश्री अद्भुत है। बुन्देलखण्ड (विन्ध्येलखण्ड) शौर्य, पराक्रम, पुण्य, पुरुषार्थ की भाग्यशालिनी धरती तो है ही, अध्यात्म-शूरता में भी वह किसी से कम नहीं है। नैनागिरि सिद्धक्षेत्र है, इसे रेशिंदी या रेशिदेगिरि भी कहते हैं। यहाँ भगवान् पार्श्वनाथ का समवसरण आया था और वरदत्तादि पाँच मुनिश्रेष्ठ मोक्ष पधारे थे। सारा गिरि-अंचल प्राकृतिक छटा से शोभित है, मनोहारी है। यहाँ २५ जिनालय हैं-सभी सादा, सुखद, संप्रेरक। मूलतीर्थ से लगभग १॥ किलोमीटर के फासले पर वन्य प्रदेश में गहरे एक सिद्धशिला है, जो आपोआप बनी है-स्वाभाविक है, अकृत्रिम है, सुन्दर है, आकर्षक है। एक ही चट्टान कटकर आसन और छत्र दोनों बन गयी है। ढलान की चट्टान स्याह है; आजादी से पहले और उसके कुछ दिनों बाद तक उपलब्ध खादी-सी खुरदरी। इस पर उभरी अधिक स्याह रेखाएँ भूमिति के रेखाचित्रों की तरह बड़ी अद्भुत लगती हैं, लगता है जैसे धूप में कोई अमावस्या आ बिछी हो। चरणप्रदेश में नदी है, परिपार्श्व में हरेभरे वृक्ष हैं। पक्षी चहकते हैं, झींगुर झाँझ बजाते हैं, बन्दर किकियाते
तीर्थकर : नव. दिस. ७८
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