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होते हैं। हो सकता है हमारी इस शैली से उन्हें नरक की कोई परिकल्पना हो सके। इसके बाद भी यदि वे चाहें तो स्वयं अनुभव कर लें। जैसे अग्नि को बेटा एक बार तो हाथ लगायेगा ही। इसके बाद जब उसे आग की प्रतीति हो जाएगी तो जैसे-जैसे आप उसके पास लालटेन लाते जाएँगे वैसे-वैसे वह सीधे हटता जाएगा, पीछे सरकता जाएगा। उसके हाथ-पाँव धूजने लगेंगे। · · · · लेकिन दुःख के कारणों से आप स्वयं बचते नहीं हैं, और कहते हैं वह दूर हो जाए; इस विरोधाभास का प्रभाव बालक के मन पर बुरा पड़ता है। जब एक बार किसी को अनुभव हो जाता है तब वह उसे जीवन-भर नहीं भूलता है। इसी तरह बेटा भी कभी नहीं भूलेगा। एक बार अनुभव हो जाने के बाद फिर इस आग को चाहे जितना सुहावना बतायें बेटा उसे छुएगा नहीं। ऐसा क्यों है ? असल में वह अनुभव कर चुका है स्वयं कि आग जलाती है, वह दुःख का कारण है। एक और अन्तर्विरोध है। हम उसे दु.ख के बारे में समझाते जाते हैं, और हंसते भी जाते ये, इसलिए वास्तविकता क्या है इसका बोध उसे नहीं हो पाता। जैसे कोई हंसते हुए आकर कहे कि महाराज, हम बहुत दुःखी हैं। हमें उपदेश दीजिये। कहां हैं आप दुःखी ? आप तो हंस रहे हैं। दुःख का जिक्र करने में दुःख की अनुभूति भी तो होनी चाहिये। उसे भी शब्दों-शब्दों तक सीमित रखा गया है। दुःख जब बताते हैं तब हमारी आँखों से आंसुओं की धार भी प्रवाहित हो उठे तो बच्चों को मालूम पड़े कि वस्तुतः दुःख क्या होता है। आ.-किन्तु हमें भी तो याद रहे कि वर्णन कहाँ का चल रहा है, और हम क्या कह रहे हैं ? वास्तव में आज सब कुछ औपचारिक ही रह गया है। वि.-इसीलिए जब उत्तर नकली होता है, तो प्रश्न भी नकलो होते हैं। आचार्य वीरसेन ने धवला में लिखा है-'रत्नत्रय की भूमिका में उतरने का अधिकार सबको नहीं है।' बहुत गहरी बात यहाँ उन्होंने कह दी है। जहाँ चरित्र का अभाव है, वहाँ रत्नत्रय का उपदेश कैसे सार्थक हो सकता है ? रत्नत्रय को शब्दों में बताना व्यर्थ है, वस्तुतः उसे जिया जाना चाहिये । आ.-एक प्रश्न और है आचार्यश्री। जैनों की एक लोकप्रिय प्रार्थना है—'प्रभु पतित पावन में अपावन, चरण आयौ शरणजी'। आभा ने मुझ से कहा कि मैं इसे नहीं बोलूगी। मैं स्वयं को अपावन नहीं मानती। मैंने कोई अपावन कार्य नहीं किया है। जब यह अंश मुझ पर घटित ही नहीं है तब मैं इसे आखिर कहूँ ही क्यों ? तब तो मैं चुप रही, किन्तु अब बतायें मैं उसे क्या उत्तर दूँ ? वि.-कहो प्रभु को पतित कर लो (हँसी) अर्थात् कहो-'प्रभु पतित, पावन मैं...'। आ. बच्चों में इतना साहस कहाँ होता है ? ने.-साहस, आशाजी, वही तो बच्चों में अधिक होता है। बच्चों का, ध्यान रखिये, दूसरा नाम साहस और जिज्ञासा ही है।
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तीर्थंकर : नव. दिस. ७८
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