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________________ आयेगा तो सीधे पिच्छी उठा लेगा। आप कहेंगे--उसे मत उठाओ, उसे मत छुओ (हँसी)। यह स्वाभाविकता का अवरोध है। वह सोचने लगेगा, अजीब बात है कि मेरे माता-पिता भी इतनी सुन्दर वस्तु को नहीं छू रहे हैं, और मुझे भी नहीं छूने दे रहे हैं (हँसी)। सहज निष्कर्ष है कि जो जिस वस्तु को उठाता है, वह उसे अच्छी लगने के कारण ही उठाता है; संभव है उसके ऐसा करने से उसका जीवन बनता हो (हँसी)। जी.-शिशु तो पिच्छी कुतूहलवश उठाता है, उसमें विवेक कहाँ होता है ? वि.-हमारे आचार्यों ने कहा है कि जो व्यक्ति कुतुहलवंश भी आत्मानुभूति की चर्चा सुनता है, या उसमें प्रवृत्त होता है, तो उसमें भी काफी आध्यात्मिक संभावनाएँ हैं। अमृतचन्द्राचार्य का एक कलशा है खेल खेलता कौतुक से भी रुचि ले अपने चिन्तन में। मर जा पर कर निजानुभव कर घड़ी-घड़ी मत रट तन में। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि कोई कौतुक से भी किसी काम को कर ले तो उसके उसमें प्रवृत्त होने की नाना संभावनाएँ सन्निहित हैं; अन्दर तो रुझान उसमें है, किन्तु कोई शक्तिशाली निमित्त उपलब्ध नहीं है। आ.-एक प्रश्न मेरी पुत्री ने मुझसे बड़ा विचित्र किया है। उसे अन्यथा लें। इस प्रश्न ने मुझे उलझन में डाल दिया है। मोक्षशास्त्र में नरक का वर्णन चल रहा था। आभा ने सहज ही प्रश्न किया। नरक क्या है, उसे ऐसे समझाओ जैसे कोई आँखों देखा हाल हो। मैंने कहा--'मैं ऐसा वर्णन तो नहीं कर सकती, हाँ, आचार्य विद्यासागरजी अवश्य उसके बारे में बता सकेंगे।' इस पर उसने तपाक् से कहा-क्या वे कभी नरक गये हैं ? उन्हें नरक का अनुभव है ?' उस दिन उसने स्पष्टतः आगाह कर दिया कि 'मैं किताब से धर्म नहीं पढूंगी; या तो मुझे लेक्चर दो, या प्रत्यक्ष बताओ।' अब आप ही बतायें उसे क्या उत्तर दूँ? वि.-उत्तर क्या उसे यहीं ले आओ। आ.-मौका नहीं मिला अन्यथा लाना तो था ही। ने.-निश्चय ही बच्चों को पढ़ाना, और उन्हें किसी प्रश्न के बारे में स्वस्तिकर समाधान देना, बड़े साहस और कौशल का काम है। हमें भी बालक की भूमिका में हीपच्छा करना चाहिये, उतनी ही पवित्रता, स्वाभाविकता, और वीतरागता के साथ । प्रश्न भी स्वाध्याय ही है। वि.-वहाँ उसे समझाना चाहिये--नरक अर्थात् एक दुःख । यहाँ हम मनुष्यों के दुःखों को तो देखते ही हैं, कहना चाहिये कि नरक के दुःख इनसे अधिक भयानक + अयि, कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन्, अनुभव भव मूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तस् । . पृथगथ विलसन्तं स्वं समालोवय येन, त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ॥२३॥ ४८ आ. वि. सा. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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