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________________ सीमा पर। 'छोड़ो' यह नहीं कह रहे हैं, किन्तु कह रहे हैं कि ज्ञानी वही है जो छोड़ना तो दूर आकांक्षा भी नहीं करता है। किसी वस्तु का ग्रहण तो यहाँ दूर की बात है, ज्ञानी 'बहुत अच्छी है' यह भी नहीं कहता है; और जो व्यक्ति किसी वस्तु को लेता है तो वह बिना आकांक्षा के तो उसे लेता नहीं है। लेकिन ज्ञानी तो यह जो पड़ा हुआ है उसे देखकर भी यह नहीं कहता कि 'यह अच्छा है'। 'आकांक्षा' ही उसमें अनुपस्थित है। अनुवाद है (गाकर) न भत की स्मति, न अनागत की अपेक्षा। भोगोपभोग मिलने पर भी उपेक्षा॥ ज्ञानी जिन्हें विषय विष दीखते हैं। वैराग्य-पाठ उनसे हम सीखते हैं। यह है ज्ञानी की परिभाषा । ज्ञानी से वैराग्य की सीख मिलनी ही चाहिये; राग का पाठ यदि उससे मिलता है, तो वह ज्ञानी कहाँ हुआ, अज्ञानी ही है। जिनसे राग-पाठ मिलता है वे ज्ञानी थोड़े ही कहलायेंगे। ने. यह है काव्य । ने.-आचार्यश्री, यदि हम बच्चों तक जैनधर्म को पहुँचाना चाहें तो उसका व्यवहाररूप या मैदानी रूप क्या होगा? अपने आचरण में से उन्हें हम जैनधर्म दें, यह तो ठीक है कि हम देव-दर्शन करें, णमोकार मन्त्रादि पढ़ें-पढ़ायें, किन्तु बुनियाद में यह कोई तर्कसंगत 'अप्रोच' नहीं है। आप तो स्वयं शिशु की पुनीत-पावन भूमिका में आठों याम रहते हैं और आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार की गाथा-क्रमांक ५ में दिगम्बर मुनि को सद्यःजात शिशु कहा है; और चूंकि आज का शिशु, या बालक कल का युवा होगा अतः मेरे उक्त प्रश्न की सार्थकता मुझे स्पष्ट दिखायी देती है। आ.-शायद कहा जा रहा है कि शिशु को आपकी भूमिका में कैसे लायें ? ने.-आशाजी, मेरा प्रश्न शब्दश: वैसा नहीं है। वि.-शिश को भेज दो हमारे पास ; शिश तो भेज नहीं रहे हैं, प्रश्न कर रहे हैं (हँसी)। शिशु को भेजेंगे तो उसे बता देंगे, उसे नहीं भेजेंगे तो बात कैसे बनेगी? आ. ने.-सूचना तो उसे देनी होगी; हाँ, सिखाने का काम सीधे होने दीजिये । वि.-वह ठीक है। शिशु को कुछ भी सिखाने में प्रारंभ में ही हमें काफी क्षमता और सावधानी बरतनी चाहिये । आप उससे कुछ भी न कहें। शिशु-पीढ़ी सहज जैसे चलती है, चलने दें। उसमें व्यर्थ के तनाव उत्पन्न न करें। सहज ही उसे जीवन में पाँव रखने दें और उसकी स्वाभाविक गति-मति को नोट करते जाएँ, फिर उसी जाने हुए वातावरण में उसे पालते जाएँ। देखिये न, जब आपका शिशु तीर्थकर : नव. दिस. ७८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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