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________________ जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठ अणण्णमविसेसं । अपदेससुत्तमझ पस्सदि जिणसासणं सवं ॥१५॥ इसमें ध्वनि वहीं से आ रही है। इंगन भी उसी ओर है। उनके साहित्य की यह एक विशेषता है कि प्रत्येक गाथा, प्रत्येक शब्द उधर ही पग उठाये है। उक्त गाथा कितनी गहरी है ? क्रम भी अदृभुत है, क्योंकि यहाँ कहा है कि जो पुरुष आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष तथा उपलक्षण से नियत और असंयुक्त देखता है, वह समस्त जिन-शासन को देखता है, जानता है। उक्त गाथा में प्रथम और द्वितीय पाद मुख्य हैं, तृतीय और चतुर्थ गौण । ये दृष्टान्तरूप में संयोजित हैं। वस्तुतः दृष्टान्त में ही मुख्य बात कही जानी चाहिये, किन्तु वह आरंभ में ही कह दी है। सूत्र की ओर उनकी दृष्टि गयी है, लेकिन कह दिया है कि यह तो वह आत्मदृष्टा यूँ ही (चुटकी बजाते) जान लेगा। हम यहाँ सहज ही जिज्ञासा कर सकते हैं कि कुन्दकुन्द ने जिन-शासन वाली बात पहले क्यों नहीं कही ? इसकी पीठ पर भी एक गाथा है, उसमें भी इसका उल्लेख नहीं है। प्रस्तुत गाथा के भी दो पादों में इसका उल्लेख नहीं है; और अन्तिम पाद में कह दिया गया है कि वह 'जिन-शासन' को यूं ही (पलक मारते) जान लेगा। जिस व्यक्ति ने अपनी आत्मा को जान लिया है, उसका अनुभव कर लिया है, उसे देख लिया है-उसके लिए जैन शासन यूँ ही सहज ही जाना हुआ है। इस तरह आत्मदर्शन को प्रथम और जिन-शासन को अन्तिम स्थान देना भी उनकी शैलीगत विलक्षणता है। जो तथ्य मुख्य था, उसे अन्तिम पाद में दिया है; और जो गौण था, उसे प्रथम-द्वितीय पाद में अभिस्थापित किया है। वास्तव में आचार्य ने जिन-शासन को इसलिए प्रथम स्थान नहीं दिया कि आत्मा के अतिरिक्त अन्य सब ज्ञेय हैं अथवा हेय हैं-उपादेय तो मात्र आत्मा है। यह ग़ज़ब है। यहीं आचार्य कुन्दकुन्द की शैली चमत्कृत करती है। आचार्य कुन्दकुन्द की एक गाथा हम और लेते हैं (आचार्यश्री ने बड़े भावविभोर हो कर गाना शुरु किया) उप्परणोदयभोगी विओगबुद्धीए तस्स सो णिच्चं । कंखामणागयस्स य उदयस्स ण कुव्वए णाणी ॥२१॥ इसमें भी कहीं त्याग का कथन नहीं है, तथापि कह वही रहे हैं। ज्ञानी वही है, जो छोड़ता है। 'छोड़ो' यह नहीं कहा है, किन्तु कहा जा रहा है कि 'जो छोड़ रहा है, वह ज्ञानी है'। अर्थात् ज्ञानी जीव के वर्तमानकालीन उदय का भोग सतत् वियोगबुद्धि से उपलक्षित रहता है अर्थात् वह वर्तमान भोग को नश्वर समझ कर उसमें परिग्रह बुद्धि नहीं रखता और अनागत-भविष्यकालीन-भोग की वह आकांक्षा नहीं करता। यहाँ उसे जो भोगोपभोग प्राप्त हैं, उनके प्रति वह हेयबुद्धि से देख रहा है, और उसमें भावी की आकांक्षा अनुपस्थित है तथा भूत की कोई स्मति नहीं है। वह ज्ञानी है, निकंख । यह है त्याग की परिभाषा उसकी चरम आ. वि. सा. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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