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________________ ने.-हाँ, ध्वनि पर रखी हुई सूई है वह। जैसे रिकॉर्ड पर सूई रखते ही ध्वनन होने लगता है, वैसे ही लिपि-संकेतों पर दृष्टि पड़ते ही वे सार्थक हो उठते हैं। वि.-टेपरिकॉर्ड में तो फिर भी ध्वनि है, किन्तु ग्रन्थ में तो वह भी अनुपस्थित है। यह कुछ भी नहीं है, एक सुभीता सिर्फ है। आ.-कुछ भी न होकर सब कुछ है । वि.-इसमें से निचोड़नेवाला बहुत आगे का व्यक्ति चाहिये। ने.-पुस्तकों से भ्रम फैलने की आशंका रहती है। वहाँ समझाने, या टीका-व्याख्या करने वाला कोई नहीं होता; इसलिए कई बार भ्रम भी फैलने लगते हैं। वस्तुतः ग्रन्थ के लिए सद्गुरु चाहिये। यदि आपके पास कोई ग्रन्थ है, तो वह अनुपयोगी है, तब तक जब तक कोई सुलझा हुआ, परिपक्व व्याख्याकार, या विशेषज्ञ आपको उपलब्ध नहीं है। वि.-इसीलिए 'गुरु' की व्युत्पत्ति कुछ विशिष्ट है । 'गु' अर्थात् 'अन्धकार', 'रु' यानी 'नाश करने वाला'; इस तरह जो अन्धकार को नष्ट करता है, वह गुरु है । ने.-गुरु तो आजकल अन्धकार पैदा कर देता है। उलझन खड़ी कर देता है। वि.-आप गुरु यहाँ किसे मान रहे हैं ? हरेक को गुरु मत मानिये। ठीक ही तो है जो अन्धकार नहीं मिटा सकता वह कु-गुरु है। ने.-आचार्यश्री, एक जिज्ञासा मन में है। मैं इस उलझन का कोई समीचीन समाधान नहीं ढूंढ पाया हूँ कि आपकी आध्यात्मिक साधना और काव्य दोनों परस्पर इतने घनिष्ठ मित्र क्यों कर हैं ? काव्य तो लालित्य से जुड़ा है, और आपका सीधा सरोकार अध्यात्म से है, फिर यह 'श्रमणशतकम्' 'निरंजनशतकम्' 'जैनगीता' आदि आप कैसे लिख पाते हैं ? इससे आपकी आध्यात्मिक साधना में व्यवधान तो नहीं पड़ता है ? आ.-किन्तु क्या आप नहीं मानते कि इस समय यहाँ का वातावरण भी काव्यमय है ? ने.-पर उत्तर तो आशाजी मुझे आपसे नहीं चाहिये । वि.-काव्य-रचना के लिए जब बाहर आता हूँ, तब मुझे विश्राम मिल जाता है (हँसी)। ने.-अर्थात् काव्य आपके लिए विश्राम है। वि.-मनोरंजन भी तो होना चाहिये (हँसी) । ने.-किन्तु हमें तो इसमें से भी काफी गहन-सघन सत्य मिल जाता है। आपका मनोरंजन भी विलक्षण है, हमें तो इसमें भी भीतर से प्राप्त होने वाली वस्तु मिल जाती है। आ.-वस्तुतः जो आपके लिए 'मनोरंजन' होता है, वह हम सबके लिए 'निरंजन' होता है। वि.-आचार्य कुन्दकुन्द ने चौरासी पाहुड़ों की रचना की थी। यों उनका साहित्य तो विपुल है, सिद्धान्त भी गहन है, किन्तु जिस शैली का अनुधावन उन्होंने किया है वह बड़ी अनूठी और विलक्षण है। उनकी हर गाथा परमसत्ता का एक चरम-अचूक संकेत है; यथा तीर्थंकर : नव. दिस. ७८ ४५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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