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________________ वि.-यह धारणा-बल (ग्रास्पिग पॉवर) गणधर परमेष्ठी को उपलब्ध है। उस ध्वनि को झेलने पचाने की क्षमता हरेक में नहीं हो सकती। बाद में वह बँट जाती है। गणधर परमेष्ठी मैनलाइन से जुड़कर उसे छोटी-छोटी नहरों में काट देते हैं। वि.-हाँ, एक तरह का रूपान्तरण होता जाता है। गणधर परमेष्ठी में वह सुस्थित होता जाता है, और बाद को छोटी-छोटी धाराओं में बँटता जाता है। इतना क्षमतावान गणधर परमेष्ठी के अलावा अन्य कोई नहीं होता। जब बाढ़ आती है तब वे उसे निकास देते जाते हैं। इस तरह दिव्यध्वनि ट्रान्सफॉर्म होती जाती है । ने.-यदि उसे उसके मूल रूप में आने दें तो जीव उसे सहन नहीं कर पायेगा। वि.-फ्यूज उड़ जाएगा। बात खत्म हो जाएगी। कुछ घटित ही नहीं होगा (हँसी)। आप लोगों के घरों में ऐसा साधारणत: होता ही होगा; इसीलिए डायरेक्ट लाइन नहीं दी जाती अन्यथा सम्चा लाइट-फिटिंग ही निष्फल हो जाए। जी.-इसके लिए अदिग की व्यवस्था भी होती है। वि.-बिलकुल। ने.-जिससे खतरा कम हो जाता है। वि.-बिलकुल । अतः भगवान् की वाणी को झेलने के और उसके व्यवस्थित सम्प्रेषण के लिए गणधर परमेष्टी की आवश्यकता होती है। आ.-दिव्यध्वनि सब पशु-पक्षी भी समझ सकते थे, यह कैसे होता था? तिथंच भी उसे समझ लेते थे। वि.-जैसे संगीत होता है। वह जब चालू हो जाता है, तब आबालवृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी, सारे-के-सारे पशु-पक्षी उसे मन्त्रमुग्ध सुनते हैं। क्या वह उनकी समझ में आता है ! भाषा समझ में आये-न-आये, लेकिन आनन्द तो उन्हें आ ही जाता है। इसी तरह भगवान् की दिव्यध्वनि के माध्यम से आनन्द तो आ ही जाता है। आ.-समझते होंगे तभी तो आनन्द आता होगा। 'वि.-यह आनन्द ही सारे प्रश्नों का अन्तिम समाधान है; इसीलिए वहाँ सारे प्रश्न, कुतुहल और जिज्ञासाएँ शान्त होती हैं। ने.-हमारे यहाँ मूर्तियाँ हैं। उनकी वीतरागता स्वयमेव भाषा है। आप उन्हें देखते हैं और आनन्द में डूब जाते हैं। यहाँ भाषा जरूरी कहाँ हैं ? यह भाषातीत स्थिति है। दिव्यध्वनि की भी स्थिति यही है। वि.-इसीलिए हमारे आचार्यों ने शास्त्र की अपेक्षा जिनबिम्ब-दर्शन और गरु-समागम पर अधिक बल दिया है। ने.-भाषातीत होने में जो आनन्द है, वह भाषा के बन्धन में नहीं है ! ध्यान में जो अवस्था होती है, मैं मानता हूँ ऐसी ही कुछ अवस्था दिव्यध्वनि के समय होती होगी मन:प्राण की। वि.-दुसरी बात यह है कि शास्त्र है किन्तु ध्वनि वहाँ नहीं है, लिपि दृश्य है, ध्वन्य नहीं है । ४४ __ आ. वि. सा. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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