________________
से हम शब्द पकड़ लेते हैं। इन संकेतों में कहाँ-कौन-सा वर्ण छिपा है, इसे तार ग्रहण करने वाला और दूसरे सिरे पर तार भेजने वाला बाबू जानता है। भगवान् की दिव्यध्वनि भी मोर्सकोड-जैसी ही है, वहाँ शब्द नहीं संकेत हैं। इन संकेतों को अक्षर-रूप देने में गणधर परमेष्ठी माध्यम बनते हैं। वे बीच के सेतु हैं। हम उन ध्वनि-संकेतों के जानने वाले नहीं हैं, अन्य जीव भी उन्हें नहीं जानते। दिव्यध्वनि आरंभ हुई। कब वह आरंभ हुई, नहीं मालूम। इस सबको जानने के लिए तो गणधर परमेष्ठी चाहिये। ज्यों-ज्यों विद्युतधारा समायोजित होती गयी, संकेत खुलते गये। प्रवाह तो चल ही रहा था, वचनयोग के माध्यम से जो प्रकट होना था, वह हो रहा था। संपूर्ण घटना से गणधर परमेष्ठी के संयुक्त होते ही दिव्यध्वनि खिर गयी। सब उल्लास में कहने लगे-"ध्वनि खिर गयी, ध्वनि खिर गयी।" तदनन्तर उसे भाषा में ढाला-सँवारा गया। ने.-दिव्यध्वनि को हम चरित्र-ध्वनि भी कह सकते हैं। वि.-हाँ, कोई भी नाम हम उसे दे सकते हैं। यह स्वभाव है उनका । एक तरह से यों कहना चाहिये कि भगवान् ने जो अथक साधना की, अब वे उसे बाँट रहे हैं। यह भी उल्लेख मिलता है कि यदि एक और पूण्यवान वहाँ चला जाता तो उसके माध्यम से कुछ और वाणी खिरती। इसका तात्पर्य यही हुआ कि वाणी तो वहाँ पहले से खिर ही रही है, कोई और पुण्यवान् होता तो वह उसे झेलता और रूपान्तरित करता, अन्यों के लिए ग्राह्य बनाता। आ.-अर्थात् वह पुण्य के कारण खिरती है, पुण्य के निमित्त ऐसा होता है। . वि.-ऐसा प्रस्फुटन जो हमारी इन्द्रियों को ग्राह्य-सह्य होता है, वह उस व्यक्ति के पुण्य-निमित्त से मिल जाता है। के.-ग्राहकता की इसमें काफी प्रशस्त भूमिका है। वि.-हाँ। ने.-ग्राहकता का बड़ा योग है। वस्तु हो तो उसे रिसीव्ह (ग्रहण) करने वाला कोई संवेदनशील अस्तित्व तो चाहिये। विद्युत्कम्पन हों और रेडियो सेट न हो तो सब कुछ व्यर्थ होगा। ऐसी ही स्थिति दिव्यध्वनि की समझनी चाहिये। वि.-वाणी की आवश्यकता भी है। ने.-किन्तु ग्रहण तो उसे होना चाहिये। कुछ आकाश में व्याप्त हो, और यदि उस व्याप्त को झेलनेवाला कोई न हो तो सब कुछ निरर्थक जाएगा। आ. यहाँ पुण्यवान् से तात्पर्य मात्र लौकिक है; पुण्यवान् एक लौकिक अभिधान है। वि.-नहीं, उसमें कुछ विशिष्ट गुण हैं, क्वालिटियाँ हैं। झेलने के लिए जरूरी संवेदनशीलता उसमें है। ने.-हाँ, वही उच्चकोटि की ग्राहकता। जी.-ग्रास्पिग पॉवर (धारणा-शक्ति)।
तीर्थकर : नव. दिस. ७८
४३
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org