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रही है, तथापि भव्य जिज्ञासा कर रहा है । यहाँ दूसरे से कोई सरोकार ही नहीं है । मोक्ष का मार्ग, और उसका उपाय सरल है ।
आ. - मैं जानती हूँ मोक्ष मार्ग इतना सरल नहीं है ।
वि. - बहुत सरल है |
ने. - जो, आचार्य श्री, बहुत सरल होता है, वही बहुत कठिन भी तो होता है । वि. - किन्तु कब तक ?
ने. - जब तक सरलतम नहीं हो पाता ।
वि. - इसी को कहते हैं राई की ओट पहाड़ । अब कठिन कहें तो ठीक है, सरल कहें तो ठीक है ।
ने. —कहीं पढ़ा था, अच्छा लगा यह कि 'टू सिम्प्लिफाइ ए थिंग इज टू यूनिवर्स - लाइज़ इट' - अर्थात् किसी चीज का सरलीकरण उसका सार्वभौमीकरण है । इस तरह आपने भेदविज्ञान को जीकर काफी सरल कर दिया है । वस्तुतः सरल हो जाती हैं जटिलताएँ जब जीने लगता है आदमी उन्हें । अगला प्रश्न है आचार्यश्री, कि अगर हम भेदविज्ञान को जीना चाहें तो वैसा करना कहाँ से शुरु करें ? इसका ख, ग कहाँ से करना होगा ?
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वि. - जिसके पास भेदविज्ञान हो कम-से-कम उसे देखे तो वह, उसके भलीभाँति दर्शन तो करे (हँसी ) ।
जी. - हाँ, यह बिलकुल ठीक है । जो जिसका मालिक है वह अपनी मिल्कियत देखे तो, उसके दर्शन तो करे ।
ने. - इसे थोड़ा और स्पष्ट कीजिये
वि. - ( हँसते हुए) और स्पष्ट कैसे करें, (हँसी) ।
आ. - जब देखना आपको है, तब स्पष्ट दूसरा कैसे करेगा ?
ने. - हाँ, बिम्ब ही है, प्रतिबिम्ब होता तो उसकी सतही सफाई हो सकती थी ।
आ. - उस मार्ग पर चढ़ने की प्राथमिकताएँ पूछ रहे होंगे शायद ।
वि. - प्राथमिकताएँ स्पष्ट हैं । जहाँ जाना है वहाँ के दर्शन तो हों कि हमें वहाँ जाना है। अभी तो हम मात्र फार्मूले पढ़कर क़दम उठाते हैं । इसीलिए मैं समयसार पढ़ने को नहीं कहता, उसे जीने को कहता हूँ ।
ने. - ' कम-से-कम' से आशय यहाँ क्या है ?
वि. - जब प्रारंभ हो जाएगा तब मिनिमम ( कम-से-कम ) में से मैक्झिमम ( अधिकतम) स्वयं हो जाएगा। आचार्यों ने कहा है कि जिनवाणी के माध्यम से आँखें खुलने के बाद ही उनमें ज्योति आ सकती है, लेकिन गुरु के समागम से तीनों मिल जाते हैं। उनकी वाणी जिन-वाणी होती है, उनकी मुद्रा देखते हैं तो वह जिनेन्द्र
तीर्थंकर : नव दिस. ७८
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