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________________ वि.-ठीक है। वही कहा तो ठीक ही है। कषाय-सल्लेखन कषाय को निरन्तर क्षीण करते जाना है। बिलकुल सहज होते जाना सल्लेखन है। इस तरह जब हम कषाय नहीं करते हैं तो जो कषाय पहले से हैं, वे आपोआप कटती जाती हैं। कोई भी प्राणी जब विभाव-परिणति के साथ कर्तृत्व-बुद्धि को जोड़ता है, तब कषायें और सघन हो जाती हैं। वे विभाव हैं, इसलिए उन्हें सहज ही सर्वथा छोड़ना चाहिये। ने.-कई बार कई लोग ऐसा सोचने लगते हैं कि जब आत्मा दीखती नहीं है तब वह होती ही शायद हो। वह उसके होने में शंकाल हो जाते हैं। अब आप ही बतायें ऐसे आदमी को 'आत्मा है' इसकी प्रतीति कैसे करायें ? वि.-आत्मा होती है, या नहीं होती है। इस तरह की शंका करने वाला ही तो आत्मा है। वह होती है अथवा नहीं होती है--यह तलाश कौन कर रहा है कौन सोच रहा है इस तरह ? वही तो वह है। ने.-'जो प्रश्न कर रहा है, वह आत्मा ही तो है स्वयं'; ठीक है। वि.-उसके बिना तो कुछ हो ही नहीं सकता। ने.-कई बार मेरे सम्मुख धर्मसंकट तब आ उपस्थित होता है, जब कोई य वा पूछ बैठता है कि कम-से-कम शब्दों में बताओ कि जैनधर्म क्या है ? कम-से-कम शब्दों में धर्म की परिभाषा देना मुझे कई बार असमंजस में डाल देता है। आप बतायें इस उलझन को कैसे सुलझाया जाए ? वि.-शब्दों में तो जैनधर्म समझाया ही नहीं जा सकता, उसे दिखाया जा सकता है (हंसी)। वस्तुतः उसे जीना आवश्यक है, यानी चरित्र में लाना आवश्यक है। सर्वार्थसिद्धि की उत्थानिका में पूज्यपाद ने एक मार्के की बात कही है कि भव्य वही है जो परहित नहीं चाहता, स्व-हित चाहता है। आज हम समझाने में लगे हुए हैं, कोई ऐसा नहीं दीखता जो समझना चाहता हो। जो स्व-हित का लक्ष्य लिये हुए है, 'भव्य' उसी का संबोधन है। ने.-लोग 'स्व-हित' में स्वार्थ सफेंगे। वि.-वास्तव में जो व्यक्ति स्वयं अपना हित नहीं करेगा, वह दूसरे का हित भी नहीं कर पायेगा। ने.-स-हित होना जरूरी है। वि.-बिलकुल । आप कर ही क्या सकते हैं तब तक, जब तक उस मार्ग को अपनाते नहीं हैं, समझते नहीं हैं। मार्ग को पहले जब स्वयं समझेंगे, तभी दूसरों को समझा सकेंगे; यह समझना ही 'स्व-हित' है, इसमें पर-हित स्वयमेव सन्निहित है। जैसे, जिसे भव्य कहा है, वह आकर पूछता है कि भगवन् सत्य क्या है ? क्या है आत्मा का स्वरूप ? यद्यपि देशना की यह प्रभा भगवान के शरीर-माध्यम से प्रकट हो .४० Jain Education International आ. वि. सा. अंक www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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