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ने -उसमें से तो गुजरना ही चाहिये; किन्तु यदि हम 'है' की जगह 'था' या 'गा' में चले गये तो वहाँ विचलन का खतरा है। वि-आचार्यों ने 'होने' को हानिकारक नहीं कहा है। चिन्तन 'करने' को यानी कर्तृत्व को क्षतिकारक बताया है। ने.-मेरी समझ में होने' को छोड़ कर ‘करने' में विभाव की स्थिति है, स्वभाव का आच्छादन है। दि.-हाँ। ने.-'होने' में स्वभाव है, 'करने' में विभाव। वि.-वैसा होगा ही। ने.-इस तरह भेद-विज्ञान स्वभाव और विभाव को पहिचानने-जानने और उनके पृथक्करण का विज्ञान है। वि.-जितने भी मनीषी हुए हैं, सारे-के-सारे पहले लिखने की ओर आकृष्ट नहीं हुए, लखने (आत्मावलोकन) की ओर हुए। बात यह है कि जब भी हम लिखने की ओर प्रवृत्त होते हैं, देखने की हमारी धारा टट जाती है; और होने यह लगता है कि जो भी हमने देखा होता है, उसे भी लिपिबद्ध करने में हम खुद को असमर्थ पाते हैं। ने.-वह क्षण बीत जाता है न । वि.-बिलकुल। ने.-'लखने' का क्षण अपना काम संपन्न करने के बाद जब लौट नहीं पाता तब फिर उसे लेखबद्ध करना तो कठिन होगा ही। वि.-बिलकुल। ने.-लिखा भी गया तो वह आत्मदर्शन से भिन्न कुछ इतर ही होगा, कोरा लेखन होगा, लखन नहीं होगा। वि.-बिलकुल । स्मृति में कुछ भी लाना मानो ज्ञान को सताना है। स्वाभाविक धारा यों होगी कि लेखनी लिखे, आत्मा लखे; आत्मा लिखे यह असंभव है। ने.-'सल्लेखन' में भी तो 'लेखन' आता है (हँसी)। वि.-सल्लेखन में लेखन का अर्थ लेखन नहीं है। यहाँ लेखन का अर्थ क्षीण करना है। सल्लेखन के दो भेद हैं-कषाय-सल्ले बन, काया-मल्लेखन। प्रमुख अर्थ है 'कषाय का क्षीण करते जाना। ने.-स/ल्ले/ख/न। वि-हाँ, यहाँ लिखने को कुछ नहीं होता, लखने को ही सब कुछ होता है। ने.-मैंने तो यह प्रसंग वातावरण को किञ्चित् विनोदमय करने के लिए उठाया था, किन्तु इससे काफी सीख सका।
तीर्थकर : नव. दिस. ७८
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