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________________ बस एक ने. - प्रायः सभी जानते हैं कि भेदविज्ञान जैनधर्म की रीढ़ है, किन्तु कोई इसकी स्पष्ट इबारत नहीं करता । कारण स्पष्ट है । इबारत हर आदमी नहीं दे सकता । वस्तुत: परिभाषा करने / देने का अधिकार ही उसे है, जो उसमें डूबा हो, पलपल उसे जी रहा हो; अतः यदि आप इसे परिभाषित करेंगे, तो यह हम सब पर बड़ा उपकार होगा । भेंट, एक भेदविज्ञानी से ( स्वाध्याय - चर्चा; नैनागिरि तीर्थ ; सिद्धशिला; सोमवार, ३० अक्टूबर, १९७८; कार्तिक कृष्णा १४, वी. नि. सं. २५०४, वि. सं. २०३५; पूर्वाह्न ११.२० - ११.५०; चर्चाकार-- आचार्यश्री विद्यासागरजी, जीवनकुमार सिंघई, श्रीमती आशा मलैया, डॉ. नेमीचन्द जैन; संकेत - वि. - आचार्यश्री विद्यासागरजी, जी. -- जीवनकुमार; आ. -- आशा मलैया ने. - नेमीचन्द जैन । ) वि. - बात यह है कि हम इसे समझने में प्रारंभ में ही भूल करते हैं । ज्ञान तो हमें पाना नहीं है, उसे सम्यक् बनाना है । ज्ञानघन तो हम स्वयं हैं । वह आत्मरूप है । ज्ञान और विज्ञान में भी भेद की एक सूक्ष्म रेखा है। ज्ञान में जब पार-दर्शन की शक्ति आती है, तब वह विज्ञान हो जाता है। ज्ञान पर्याय में अटकता है, सम्यग्ज्ञान उसके पार निकल जाता है । सामान्य जन ज्ञेय पर फिसल जाता है, सम्यग्ज्ञानी अचूक चलता है, अनवरुद्ध चलता है । ने - आइन्स्टीन को जैनधर्म का विशेष ज्ञान नहीं था, किन्तु वह 'सब्स्टेन्स' और 'फॉर्म' की विशिष्टताओं से परिचित था । जानता था कि पर्याय में संघर्ष है, वस्तु में नहीं है । बहुधा हम पर्याय में अटक जाते हैं वस्तु को सटीक नहीं देख पाते । मैं मानता हूँ कि भेदविज्ञान इसमें हमारी काफी कुछ सहायता कर सकता है । वि - बिलकुल । मेरी समझ में चिन्तन के द्वारा सत्य का साक्षात्कार होता है । चिन्तन करने के लिए बैठने से वह नहीं होता । इस तरह तो चिन्तन चिन्ता में बदल जाता है ( हँसी ) ; इसलिए चिन्तन को सहज - मुक्त छोड़ना होता है । चिन्तन ही, वस्तुतः एक ऐसा माध्यम है, जो सत्य के आमने-सामने हमें खड़ा कर सकता है । आ. वि. सा. अंक ३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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