________________
लगा कर अपनाना चाहिये । जो व्यक्ति एक बार भी इस रास्ते पर चलना आरंभ कर देता है, उसे फिर भागने की आवश्यकता नहीं है। आपको वहाँ अनन्तकाल तक विराम मिलेगा; फिर एक समय ऐसा आयेगा, जब आप अपनी सत्ता में रहेंगे, जब सारे-के-सारे ज्ञेय पदार्थ आपके अधीन रहेंगे । आप ज्ञाता एक मौलिक द्रव्य बने रहेंगे; अतः उस मुक्ति के भाजन हम बन सकते हैं, लेकिन इस 'सकने' की अपेक्षा से अभव्य भी बन सकते हैं । हमारे पास जो भी शक्ति है, क्षमता है, उसके अनुसार प्रारम्भ कर देना चाहिये ।
प्रतिक्रमण का अर्थ है, मुक्ति का अर्थ है अपनी ओर देखना । प्रतिक्रमण अर्थात् आत्मा की ओर आना और आक्रमण अर्थात् बाहर की ओर जाना । इस प्रकार मुक्ति का अर्थ प्रतिक्रमण है, निर्जरा है। यदि आप समझना चाहें, तो सब कुछ है, नहीं समझना चाहें, तो कुछ भी नहीं है ।
मुक्ति अविपाक निर्जरा का एक फल है और यह तप के माध्यम से होती है। आप इस प्रकार तप कीजिये जिससे आत्मा तप कर एकमात्र स्वर्ण बन जाए, स्वर्ण ही रह जाए। आप भगवान् से प्रार्थना कीजिये, अपनी आत्मा से भी यह प्रार्थना कीजिये, अपने भावों के सामने भी यही पुकार कीजिये कि आपके मोहजन्य भाव पलट जाएँ और हमारे अन्दर जो मोक्षजन्य भाव हैं, जो निर्विकार भाव हैं, वे जागृत हो जाएँ ।
(नैनागिरि तीर्थ में सात तत्त्वों पर दिये गये प्रवचनों में से मोक्ष-तत्त्व का संपादित विवेचन; केस्सेट से आलेखन : वीरेन्द्रकुमार जैन, सागर, संपादन : प्रेमचन्द जैन) ।
साधु की विनय
मुझसे एक सज्जन ने एक दिन प्रश्न किया- 'महाराज, आप अपने पास आनेवाले व्यक्ति से बैठने की भी नहीं पूछते । बुरा लगता है । आप में इतनी भी विनय नहीं ।' मैंने उनकी बात को बड़े ध्यान से सुनकर कहा कि 'भैया, समझो एक साधु की विनय और आपकी विनय एक-सी कैसे हो सकती है ? आपको मैं कैसे कहूँ 'आइये बैठिये' । क्या यह स्थान मेरे बाप का है ? और मान लो कोई केवल दर्शन - मात्र के लिए आया हो तो ? इसी तरह मैं किसी से जाने की भी कैसे कह सकता हूँ? मैं आने-जाने की अनुमोदना कैसे कर सकता हूँ ? मान लो कोई रेल या मोटर से प्रस्थान करना चाहता हो, तो मैं उन वाहनों की अनुमोदना कैसे करूँ, जिनका मैं वर्षों पूर्व त्यागकर चुका हूँ? और मान लो कोई केवल परीक्षा - मात्र करना चाहता हो तो, तो उसकी विजय हो गयी और मैं पराजित हो जाऊँगा । आचार्यों का उपदेश मुनियों के लिए केवल इतना है कि वे केवल हाथ से कल्याण का संकेत करें और मुख का प्रसाद बिखेर दें। इससे ज्यादा उसे कुछ और नहीं करना है ।'
- आचार्य विद्यासागर
तीर्थंकर : नव दिस. ७८
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
३७
www.jainelibrary.org