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वास्तविक अर्थ है। प्रत्येक कार्य के पीछे संसारी प्राणी अहंबुद्धि या दीनता का अनुभव करता रहता है। कार्य तो होते रहते हैं, लेकिन वह आत्मा उनमें कर्त त्व भी रखता है, यह बात नहीं है। भगवान् इसीलिए तो सारे विश्व के लिए पूज्य हैं कि उन्होंने कर्तत्व को एक द्रव्य में सिद्ध करके भी बाह्य कारण के बिना उसमें किसी भी कार्यरूप परिणत होने की क्षमता नहीं होना दर्शाया है। कार्य-रूप जो द्रव्य परिणत होता है उससे बाहर का भी कोई हाथ है, इससे वह अभिमान कर नहीं सकेगा, मैंने किया, ऐसा कह नहीं सकेगा। मुक्ति - इच्छा का अभाव
दूसरी बात यह है बाहरवाला ही सब कुछ करता हो तो उस समय दीनता आ जाएगी, तो उस समय बाह्य तथा इतर अपना उपादान है और निमित्त कई प्रकार के हैं-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव अलग-अलग हैं। इस प्रकार जो बाह्य और अन्दर है, उसे कहकर दीनता को समाप्त करने का एक कारण उन्होंने बताया, आभ्यन्तर कारण उपादान नहीं, उसके माध्यम से यह कार्य होता है। उसमें कार्य में ढलने की क्षमता उपादान है, इसलिए दीनता नहीं अपनाना चाहिये। सारे-के-सारे कार्यों में मेरा हाथ है-इस पथिक के मन में 'अहंभाव' जागृत न हो इसलिए वे कह देते हैं कि तेरे अन्दर क्षमता तो है, लेकिन वह क्षमता व्यक्ति के रूप में तभी व्यक्त हो सकती है, जबकि दूसरे का भी उसमें हाथ लग जाता है । इस प्रकार कहने से दीनता
और अहंभाव-दोनों हट जाते हैं, कार्य निष्पन्न हो जाता है। इन दोनों को हटाने के लिए नियतवाद रखा है; अर्थात् मैं कर्ता हूँ, यह भाव निकल जाए, समय पर सब कुछ होता है, मैं करनेवाला कौन? यह भाव आ जाए, इससे तो समता आ जाए। जब वह दूसरे पर निर्भर है तो मैं कहाँ कर सकेंगा, क्योंकि समय पर ही होना इसके लिए आचार्यों ने बताया है। उन्होंने यह भी बताया कि मुक्ति के लिए ऐसे कोई हम पकनेवाले नहीं हैं, जिस प्रकार आम डाली के ऊपर पक जाते हैं और उनको मुक्ति मिल जाती है। इस प्रकार हम संसार में नहीं रह सकेंगे। जो आसन्न भव्य बन जाता है, वह पाल रख कर अपनी आत्मा को तपा देता है; लेकिन उतावली आ गयी तो ऐसी-की-ऐसी स्थिति हो जाती है।
आप निराकुल होकर, एकाग्र होकर जो साधना बनानी चाहिये, वह साधना बनाओ। यहाँ तक कि आप मोक्ष के प्रति भी इच्छा मत रखो। इच्छा का अर्थ ही संसार-मोह है और इच्छा का अभाव ही मुक्ति है। मुक्ति ऐसी चीज है जिसे निराकुल भाव का उद्घाटन करके अन्दर प्राप्त करना है, जहाँ पर जाना है। आज तक राग का ही बोलबाला रहा है, अब वीतराग अवस्था का ही मात्र उद्घाटन करना चाहिये। वीतरागता
___ संसारी प्राणी को दुःख क्यों हो रहा है ? इसका कारण है राग। सकल संसार त्रस्त है, आकुल-विकल है। इसका कारण विषय-राग को हृदय से नहीं हटाना
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आ. वि. सा. अंक
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