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जल्दी मक्ति की भावना होती है । आसन्न भव्य में हमारी गिनती नहीं आ रही है, अतः जल्दी करना चाहिये ; शुभस्य शीघ्रम् ।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मुक्ति का मार्ग छोड़ने के भाव में है और जो छोड़ देगा, उससे प्राप्त होगी निराकुल दशा। उसको कहते हैं, वास्तविक मोक्ष । वास्तविक मोक्ष अर्थात निराकूलता। निराकुलता जितनी-जितनी जीवन में आये, आकुलता जितनी-जितनी घटती जाए, उतना-उतना मोक्ष आज भी है। निर्जरा के माध्यम से भी एकदेश मुक्ति मिलती है, पूर्ण नहीं मिलती। एकदेश आकुलता का अभाव होना यह उसी का प्रतीक है कि सर्वदेश का भी अभाव हो सकता है। राग-द्वेषादि जितने-जितने भाग में हम आकुलता के परिणामों को समाप्त करेंगे, उतने-उतने भाग में निर्जरा बढ़ेगी, उतनी निराकुल दशा का लाभ होगा। तो आकुलता को छोड़ने का नाम ही है मुक्ति । आकुलता को छोड़ने का अर्थ ही यह हुआ आकुलता के जो कार्य हैं, आकुलता के जो साधन हैं, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-सबको छोड़कर जहाँ निराकुल भाव जागृत हो, उस प्रकार का अनुभव करने का नाम ही तो निर्जरा है । इसीलिए बार-बार एक-एक समय में भी आप निर्जरा को बढ़ा सकते हैं, निर्जरा के बढ़ने से मुक्ति भी अपने पास आयेगी। मोक्ष : आत्मा का उज्ज्वल भाव
सात तत्त्वों में एक तत्त्व मोक्ष भी है और वह आत्मा से पृथक् तत्त्व नहीं है, जो आत्मा का ही एक उज्ज्वल भाव है। यह मोक्ष-तत्त्व बाकी के जितने भी तत्त्व हैं, वे सारे-के-सारे तत्त्व एक दृष्टि से गौण हो सकते हैं, समाप्त हो सकते हैं, लेकिन मोक्ष-तत्त्व अनन्तकाल तक रहेगा, क्योंकि वह फल के रूप में है। सभी का उद्देश्य वही है, अपने को मोक्ष प्राप्त करना । नियतिवाद का सम्यक् स्वरूप
जिस समय जो होनेवाला है, आनेवाला है, उस समय वह आ ही जाएगा। मुक्ति तो अपने को मिल ही जाएगी। प्रयास करने से कैसे मिलेगी ? प्रयोग करना व्यर्थ है। बिलकुल ठीक है, यदि नियत ही आपका जीवन बन जाए, तो उस जीवन को मैं सौ-सौ बार नमन करूँ। जिस समय जो पर्याय आनेवाली है, उसी समय आयेगी, अपना वहाँ पर कुछ नहीं चल सकता । 'होता स्वयं जगत् परिणाम', अपने-अपने स्वयं परिणमन होते रहते हैं, लेकिन 'मैं जग का करता क्या काम ?' इस ओर भी तो ध्यान देना चाहिये ना? 'होता स्वयं जगत परिणाम' तो बहुत अच्छा लगता है और मैं जग का करता क्या काम नहीं-सब काम, क्योंकि मुक्ति के मार्ग पर तो आने के लिए कहता है, समय पर सारी पर्याएँ नियत हैं। प्रत्येक समय में प्रत्येक पर्याय होती है और वह पर्याय यदि नियत है-यह श्रद्धान हो जाए, तो मुक्ति दूर नहीं है। वही मुक्ति है। नियतिवाद के ऊपर डट जाना ही मुक्ति है । नियतिवादी के सामने सब आत्मसमर्पित (सरेंडर) हो जाते हैं। । ध्यान रखना कि नियतवादी को क्रोध नहीं आता, मान नहीं आता। उसे किसी की ग़लती नजर नहीं आती। उसके सामने मात्र नियत, प्रत्येक पर्याय नियत है । देखो,
आ. वि. सा. अंक
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