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आत्मा को निर्दोष बनाना ही मुक्ति है। मोक्ष तो फल है और निर्जरा साधना है। साधना का अर्थ एकदेश मुक्ति का मिलना है। एकदेश आत्मप्रदेशों से दोषों का निवारण होना निर्जरा है। पूर्णरूपेण अभाव को प्राप्त होना मोक्ष है।
हमारा जीवन जो मुक्ति के लिए आगे बढ़ रहा है, उसके लिए साधक कमसे-कम बने। संसारी प्राणी अनादिकाल से इसमें रचता-पचता आ रहा है। उसके लिए कोई छोर नहीं है, बिगनिंगलेस है; आदि नहीं है, अन्त भी नहीं है। यह संसार तो अनादि-अनन्त है। हम इसमें भटकते-भटकते आ रहे हैं। तात्कालिक पर्याय के प्रति जो आस्था है, उसको भूलना होगा और त्रैकालिक जो आ रहा है उस पर्याय को धारण करनेवाला द्रव्य है मैं आत्मा कौन हूँ, इसके बारे में चिन्तन करना होगा। प्रायः हमारे आचार्यों ने इसीलिए पर्याय को क्षणिक बताते हुए क्षणभंगुरता और निस्सारता के बारे में उल्लेख किया है। सारी-की-सारी पर्याएँ निस्सार ही होती हैं, ऐसा नहीं है; किन्तु संसारी प्राणी को मोक्षमार्ग पर चलने के लिए पर्याय की हेयता बताना अति आवश्यक है। इसके बिना उसकी आत्मा उस पर्याय से हटकर त्रैकालिक जो द्रव्य है, उसके प्रति नहीं उठ सकती और जब तक उसकी दृष्टि उस अजर-अमर द्रव्य के प्रति नहीं जाएगी, तब तक संसार में रचना-पचना छूटेगा नहीं।
संसारी प्राणी की स्थिति यह है कि क्षेत्र का प्रभाव उसके ऊपर ऐसा पड़ जाता है कि उस चकाचौंध में जब वह फँस जाता है, तब अतीत में बहुत ही अच्छा भी क्यों न कार्य किया हो, उसे भी वह भूल जाता है और जीवन के आदि से लेकर अंतिम समय तक यों कहना चाहिए वह उन्हीं भोगों में व्यस्त हो जाता है। चारों गतियों में सारे जीव व्यस्त हो जाते हैं; लेकिन मनुष्य-गति ही एक ऐसी है, जिसमें व्यस्तता नहीं पायी जाती। व्यस्तता बनायी भी जा सकती है और मनुष्य-जीवन में ही व्यस्तता को धक्का लगाया जा सकता है। वह एक विशेष कोटि का विवेक जागृत कर सकता है। यह विवेक एक छोटे बच्चे में भी पाया जा सकता है। मुनिचर्या में वीतरागता की झलक
___ इस प्रकार जिस व्यक्ति को सम्यग्दर्शन हो गया, वह चारित्र पर अग्रसर होगा ही। उसके अन्दर तड़प लगी रहती है कि किस प्रकार मैं मुक्ति के मार्ग को प्राप्त करूं, वह कहाँ पर है, किस कोने में है, उसको ढूँढ़ता रहता है। कोई उदाहरण के लिए आ जाए, तो वह कह देता है कि बस अब बताने की कोई आवश्यकता नहीं । सम्यग्दष्टि को मुनि की प्रत्येक क्रिया में वीतरागता दीख पड़ती है। इसमें कोई सन्देह नहीं, मुनिचर्या के विधान के अन्तर्गत जो नियम हैं, वे सारे वीतरागता के द्योतक हैं। मुनि तो उन्हें निर्जरा का निमित्त बनाता है। वे सभी कार्य उसके लिए निर्जरा के निमित्त बन सकते हैं। इस प्रकार चौबीसों घण्टे बैठते, उठते, जाते और बोलते समय भी आप मुनियों के माध्यम से शिक्षा ले सकते हैं। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान चरित्र की भूख को तीब्र बना देते हैं। इनके उत्पन्न होने के उपरान्त चारित्र की तीव्रता बढ़ जाती है, क्योंकि उसमें जल्दी-से
तीर्थंकर : नव. दिस. ७८
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