SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्ष : आज भी संभव - निराकुलता जितनी-जितन: जीवन में आये, आकुलता जितनी-जितनी घटती जाए, उतना-उतना मोक्ष आज भी है । .] मोह का अभाव हो जाए, तो आप आज ही मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं। मुक्ति का मार्ग है, तो मुक्ति भी है। मुक्ति है तो आज भी राग-द्वेष का अभाव है। - आचार्य विद्यासागर प्रतिक्रमण का अर्थ ___ आक्रमण संसार है, प्रतिक्रमण मुक्ति है। प्रतिक्रमण का अर्थ है किये हुए दोषों का मन-वचन-काय से, कृत-कारित-अनुमोदन से विमोचन करना। मोचन शब्द से ज्ञात होता है कि छोड़ने के अर्थ में मोक्ष शब्द आया है। अनादिकाल से धर्म छुटा है और छोड़ा जाएगा; यही पाप है। संसारी प्राणी दूसरे को दण्ड देना चाहता है, पर अपने-आप दण्डित नहीं होना चाहता। मुनि ही एक ऐसा जीव है जो दूसरे को दण्ड देना नहीं चाहता है और वह खुद प्रत्येक प्राणी के सम्मुख-वह सुने या न सुने-अपनी पुकार पहुँचा देता है : एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक सब जीवों के प्रति मैं क्षमा धारण करता हूँ, मैं क्षमा करता हूँ और मेरे द्वारा मन-वचन-काय से, कृत-कारित-अनुमोदन से किसी भी प्रकार से आप लोगों के प्रति दुष्परिणाम हो गये हों, तो उसके लिए क्षमा चाहता हूँ और आप लोगों को भी क्षमा करता हूँ। ये प्रतिक्रमण के भाव हैं । लेकिन आप तो आक्रमक बने हैं। आक्रमक क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, रागी और द्वेषी होता है। प्रतिक्रमणी रागी नहीं होगा; मानी होगा वह तो मन के ऊपर मान करेगा कि मैं तेरे से बड़ा हूँ, तुझे निकाल ही दूंगा। मान का अपमान करनेवाला यदि कोई संसार में है, तो वह मुनि है। लोभ को भी प्रलोभन देने वाला यदि कोई है, तो वह मुनि है। क्रोध को भी गुस्सा दिलानेवाला यदि कोई है तो वह मुनि है। वह क्रोध का उदय आ जाए, तो खुद शान्त बन जाता है। क्रोध यदि जलता रहे और उसके लिए ईंधन नहीं मिले, तो अग्नि थोड़े ही जलेगी, वह तो शान्त हो जाएगी। इस प्रकार दशलक्षण धर्म के माध्यम से वह सारी कषायों को शान्त कर देता है। वास्तविक क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी तो मुनि है वह इनसे, जैसे लोभ को भी प्रलोभन देकर अपना काम निकाल लेता है। इस तरह वह प्रतिक्रमण करनेवाला बड़ा काम कर रहा है, वह अपना काम गुपचुप करता रहता है । उसकी भावना अहर्निश चलती रहती है। ३० आ.वि.सा. अंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy