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________________ विद्या जलि तुम त्याग और विराग के परिपूर्ण धाम, वाचाल करते हैं मुझे तव गुण ललाम । है शक्ति मुझमें नहीं गुरो, तव स्तवन की, प्रकटित तथापि हो रही भक्ति स्वमन की ।। है ज्ञान अद्भुत गुरो, तव आत्मा का, जो है कराता परस परमात्मा का। ज्ञानवारिधि में मिटा दी भेद-सरिता, देती सुनायी स्वतः निज की सुकविता ।। मान को दिया गुगे, तुमने अमान, देते तथापि तुम सभी को सुमान । हैं आप कहते नहीं मुझको ही मान, हो पीर हरते गुरो, सबकी समान ।। तुम-सा सरल गुरु इस धरा पर कौन होगा ? उपलब्धि तुम-सा तरल भी और अब यहाँ कौन होगा? हो रहे हो, गुरो, तुम, अब सुकाम । ऋजता स्वयं ही है गरो, तव है लभाती, प्रतिक्षण तुम ब्रह्ममय ही हो रहे हो, है आर्तजन के दुःखों को झट मिटाती ।। परिपूर्ण बनके अपूर्णता को खो रहे हो। सत्य तव सुवचनों में ऐसा भरा है. स्वरस का जब पान तुमने कर लिया है, असत्य की हो जाती स्वयं विराधना है। रसों का परित्याग तुमने कर दिया है। तुम बोलते हो सत्य, न कटु कदापि, काम आयेगा कहाँ अब अन्य रस मी ? वोलते तुम सरस न अहित तदापि ॥ जब स्वरस में तुम हो रहे सरस ही ।। है लोभ का कर दिया तुमने विनाश, 'विविक्त-शयनासन' से भय को मिटाते, है शौच का कर लिया तुमने सुवास। एकान्त वन में पहुँच 'समय' को जगाते। धारा बहा दी गुरो, तुमने तोष की अब, ऐसा ही अद्भुत गुरो, सुतप तुम्हारा, स्नपित हो पाते छटा स्व-तोष की सब। देता है बस, निज का, निज को सहारा ।। हो अकिंचन तथापि तुम पूर्ण कंचन, विद्याञ्जलि अर्पित गुरो, सद्भावना है, पूर्ण कंचन भी तव सम्मख है अकिंचन। होती प्रकट स्वयं ही बस सुभावना है। छोड़कर भी हे गरो, सब, पा गये तुम, ग्रथित हो रही शुभा सत्प्रेरणा है, प्राप्त करके सभी कुछ खो गये हम ॥ शमित हो रही स्वतः चिरवेदना है। है काम को सब विधि मिल गया विराम, । श्रीमती आशा मलैया तीर्थंकर : नव-दिस. ७८ २९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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