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________________ ( युवा पीढ़ी का ध्रुवतारा : पृष्ठ २६ का शेष ) डूबा है—किसने चरण छुए, किसने नमन किया, कौन पास आकर बैठ गया, उठ गया--विलक्षण प्रतिभा और अभीक्ष्ण साधना के धनी इन निःस्पृह साधकों को इसका कोई भान ही नहीं था। और जब देख ही लेते तब मात्र एक स्वस्तिकर मुस्कराहट ओठों के बीच उभरती, मानो वह युवापीढ़ी को उस कठोर-कण्टकाकीर्ण मार्ग पर चलने का निमन्त्रण ही हो। आचार्य विद्यासागर आज की युवापीढ़ी के जीवन में एक अभिनव चारित्रिक क्रान्ति का सूत्रपात करना चाहते हैं। युवकों के लिए एक चुनौती की तरह है उनका मध्यप्रदेश विहार--कभी कुण्डलपुर, कभी नैनागिरि। वस्तुतः यह युवकों की परीक्षा का समय है। धर्म को वृद्धावस्था की विवशता, या लाचारी नहीं वरन् युवावस्था की स्वाभाविकता बनाना चाहिये। आचार्यश्री का जीवन इसी तथ्य की सिद्धि पर न्यौछावर है। इधर के दस-बीस वर्षों में देश की युवापीढ़ी में उदात्त जीवन-मूल्यों के प्रति जो रुझान बढ़ी है, उसकी पृष्ठभूमि पर आचार्यश्री विद्यासागरजी-जैसे मुनि मनीषी एक अकम्प लौ वाले दीपक की तरह विद्यमान हैं। आज वह क्षण उपस्थित है जब कि समाज की युवापीढ़ी को आचार्यश्री के चरणों में बैठ कर जीवनावलोकन करना चाहिये, सारे देश में आध्यात्मिक मूल्यों की खोज और प्रसार के लिए अनुसन्धान-केन्द्र स्थापित होने चाहिये, प्राचीन धार्मिक और नैतिक ग्रन्थों को नूतन भाषा-शैली में रूपान्तरित किया जाना चाहिये, ताकि मंगल ग्रह की ओर वेभान भागती इस मानव-पीढ़ी को किसी बड़े अमंगल से बचाया जा सके। असल में, अंगार हैं, किन्तु उनकी ऊर्जा पर प्रमाद की राख छा गयी है। आचार्य विद्यासागरजी उस मनहस राख को हटा कर अंगारों को उनकी मौलिक ऊर्जा लौटाने के पुरुषार्थ में लगे हैं। जैन-जैनेतर सभी विचारकों को इस तथ्य पर विचार करना होगा कि जब एक २२ वर्षीय तरुण साधु (वर्तमान वय ३२ वर्ष) ऐसी कठोर साधना और दुर्द्धर तपश्चर्या कर सकता है, तो कोई कारण हमारे पास शेष नहीं है कि हम उन धार्मिक मूल्यों की ओर अधिक दृढ़ता से न लौटें, जो शाश्वत शान्ति, अहिंसा, और सत्य को जनमते हैं, और सत्यं, शिवं, सुन्दरम् में आस्था रखने वाली समाज की आधारशिला बन सकते हैं। शौच : लोभ की सर्वोत्कृष्ट निवृत्ति “स्त्री यदि अपने पति के साथ मरना चाहती है तो पुत्र उसे रोकता है । लोभ का पिता मोह है और माता माया है । अब मोह मरता है तो उसके साथ माया भी मरने को तैयार होती है; किन्त लोभ उसे मरने नहीं देता। इसलिए लोभ का निग्रह करने के लिए शौच देवता की आराधना करना चाहिये । शौच को देवता इसलिए कहा है कि देवता को अपने शरणागत का पक्षपात होता है; अतः जो शौच की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें लोभ के चंगुल से छुड़ा देता है । लोभ की सर्वोत्कृष्ट निवृत्ति को शौच कहते हैं।" -अनगार धर्मामृत, अ. ६, श्लो. २८ Jain Education International आ.वि.सा. अंक www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.520604
Book TitleTirthankar 1978 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Jain
PublisherHira Bhaiyya Prakashan Indore
Publication Year1978
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tirthankar, & India
File Size6 MB
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